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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रजापतिर्य: प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्व: पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विवदे विदांवर: ॥2॥
बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक 2 अर्थात्- प्राणि जीवन के संरक्षक जिन ऋषभदेव ने प्रजा के लिये कृषि आदि षट्कर्म का उपदेश दिया, पश्चात् विवेकबुद्धि से विश्व के तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त कर क्षणिक वैभव से मोह का त्याग कर दिया था। सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ का समन्वयवाद इस भाँति है।
चक्रेण य: शत्रुभयंकरेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ।।770
बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, श्लो0 77 सारांश- भगवान् शान्तिनाथ ने शत्रुओं को भयप्रद शासन चक्र से विरोधी राज समूह को जीतने के पश्चात् आत्म ध्यान रुपी चक्र से साधारण जनों के लिये अजेय मोह रूप चक्र को जीत लिया था।
इस प्रकार चौबीसों तीर्थंकरों के जीवन में धर्मतत्त्व और राष्ट्रीय तत्त्व का, जीवन और मुक्ति का या प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय चमत्कारप्रद सिद्ध होता है।
जैन साहित्य में गृहस्थ के लिए जो मंगल कामना या शान्ति प्रार्थना करना आवश्यक कहा गया है उसके कुछ श्लोकों पर दृष्टिपात कीजिये -
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र : ॥
__ शान्तिपाठ श्लोक, अर्थात- परमात्मा के आराधकों को, नेताओं, शासकों, संरक्षकों को, आचार्य एवं साधुजनों को, जीवन में शान्ति प्राप्त हो तथा राष्ट्र देश, नगर को एवं इनके राजा को सुख-शान्ति प्राप्त हो।
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक् विकिरतु मधवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥7॥ शा0 पा0 जिनेन्द्र अर्चा के प्रभाव से विश्व के मानवों का कल्याण हो, शासक वर्ग न्यायी, धार्मिक एवं प्रबल हो, समय पर उचित जलवृष्टि हो, रोगों का नाश हो, राष्ट्रों में दुर्भिक्ष चोरी डकैती कभी न हो, संक्रामक रोग प्लेग, कालरा आदि का प्रसार न हो और विश्व में शान्तिप्रद अहिंसा सत्य आदि सिद्धान्तों का चक्र सदैव चलता रहे।
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