Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 720
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन से लोक कल्याणकारी भावना की अनुभूति ___पं. खेमचंद्र जी, जबलपुर वीतरागी, निस्पृही संत आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का जन्म कर्नाटक प्रान्त के बेलगांव जिले के सदलगा गाँव में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 दिन गुरुवार रात्रि 11.30 बजे हुआ था । आपका बचपन का नाम विद्याधर था तथा आपके पिताजी का नाम श्रीमल्लप्पा अष्टगे तथा माताजी का नाम श्रीमतीजी था। आपके ज्येष्ठ भ्राता का नाम श्री महावीरप्रसाद अष्टगे है । “होनहार विरवान के होत चीकने पाट" की कहावत के आधार पर बालक विद्याधर ने मात्र 9 वर्ष की बाल्यावस्था में आचार्य शांति सागर जी महाराज के प्रवचन सुनकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का संकल्प कर लिया था। बचपन में ही मंदिर में प्रवचन तथा चिंतन में रूचि लेने लगे थे। निश्चित ही मानो भावी मुनि दीक्षा के लिए मनोभूमि तैयार कर रहे हो। ज्ञानावरणीय कर्म का प्रबल क्षपोयशम था, संयम के प्रति अन्त: प्रेरणा प्रबल थी, अत: किशोरवय में ही आपने जयपुर में विद्यमान आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर लिया । अब वे ब्रह्मचारी विद्याधर कहलाने लगे। आचार्य देशभूषण जी महाराज के संघ में रहकर श्री गोमटेश्वर बाहुबली भगवान के महामस्तकाभिषेक में शामिल हुए तथा ज्ञानार्जन के लिए वे श्रीज्ञानसागर जी महाराज के समीप 1967 ई. में मदनगंज किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान पहुँचे तथा अजमेर के मुनिभक्त श्रावक शिरोमणि श्री कजौड़ीमल की कृपा से वे पूज्य श्री ज्ञानसागर जी के विनम्र शिष्य बनकर लगभग पाँच वर्षो में जैनदर्शन के प्राय: सभी शास्त्रों का अध्ययन कर पारंगत हो गए । योग्य गुरु को योग्य शिष्य का मिलना पूर्वोपार्जित कर्माधीन संयोग ही माना जाता है । गुरु ज्ञानसागर जी ने ब्र.विद्याधर को विद्यानन्दि बना दिया । गुरू कृपा से वर्ष 1968 की 30 जून को उन्हें अजमेर में मुनिदीक्षा दी गई तथा 22 नवम्बर 1972 को नसीरावाद में आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपना आचार्य पद मुनि विद्यासागर जी को प्रदान कर उनसे अपना समाधिमरण कराने की अविस्मरणीय भावना व्यक्त की तथा अंतिम उपदेश के रूप में कहा - "वत्स अतीत की अपेक्षा से तू मेरा शिष्य है और वर्तमान की अपेक्षा से गुरु है। स्यावाद जैनदर्शन का प्राण है । आचरण में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद् और विचारों में अनेकांत दिगम्बर श्रमण के आभूषण है । यह बात जीवन पर्यन्त स्मरण रखना । अब विलम्ब मत कर मुझे अपना शिष्य समझकर समाधिमरण हेतु मुझे आज्ञा प्रदान करें।" विद्यासागर जी स्मृतियों के अथाह सागर में डूब गये । कुछ क्षण पश्चात् उन्होंने अपने नयन खोले, अपने दीक्षा गुरू के शीश पर वरद हस्त रखा और कहा “वत्स ! तुम्हारा समाधिमरण सार्थक हो।" मृत्यु आनंददायी है इतना कहकर आचार्य विद्यासागर जी ने समाधिस्थ संत की ओर देखा, ज्ञानसागर के पलक एक निमिष को खुले, अधरों पर हल्का सा कम्पन हुआ तथा इस नश्वर संसार से महाप्रयाण कर गए। यह गुरु शिष्य के आध्यात्मिक दर्शन की चरमसीमा का फल है। -617 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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