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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ झगड़ा समाप्त । सभी अंधे सहमत ।यही है जिनमत । यही है सप्तभंगी नय । यही है स्यावाद । जहाँ स्याद्वाद समाप्त् वहीं से प्रारंभ होता है शायवाद । समन्वय का सोपान :
वास्तव में अनेकांत पूर्णदर्शी हैं और एकांत अपूर्णदर्शी। अनेकांत दृष्टि वस्तु तत्व के विभिन्न पक्षों को सही दृष्टि से स्वीकार कर समन्वय (समझौता) का श्रेष्ठ साधन बताता है। सभी की बात सुनकर यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन बिना किसी विरोध के हो जाना ही अनेकांत का सफल सोपान है । आज व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक या जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनेकांत की आवश्यकता महनीय अनुभव गम्य है।
___ “सत्यं शिवं सुन्दरम्" का प्रमाणिक उद्घोष यदि संभव है तो वह अनेकांतवाद के द्वारा । सत्य का फूल वहाँ खिलता है जहाँ दूसरों का भी आदर किया जाता है। दूसरों की बात को धैर्यपूर्वक सुनने से सही दिशा मिलती है । एकांत से सत्य का फूल सूख जाता है क्योंकि उसमें समन्वयकारी जल का अभाव है। हठधर्मिता के काँटे हैं रत्नत्रय के काँटों को तप, त्याग, संयम के द्वारा ही सहा जाता है। तभी मोक्षरूपी गुलाबी फूल पाना संभव है । अत: समन्वयवादी व्यक्ति को सहनशील होना चाहिए। आत्मोपलब्धि का सार समयसार है । समयसार का सार अनेकांत दृष्टि में है । अनेकांतमय दृष्टि का सार यथार्थ वस्तु के विवेचन में तथा यथार्थ वस्तु का विवेचन प्रमाणिक आगम सम्मत सप्तभंगमय स्याद्वाद भूषित अनेकांतवाद में है। अनेकांतवाद की सार्थकता का सारांश पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज समझाया करते थे :
"इस जग की माया विकट, जो न तजोगे मित्र । तो चहुँगति के बीच में, दुख पाओगे चित्र ॥ जो संसार समुद्र से है बचने की चाह ।
भेद ज्ञान नौका लहो, छोड़ो पर की आह ॥" इस विवेचन में मानव मन को अनेक प्रकार से समझाया गया है। इस पर चलने का नाम है समन्वय। समन्वय ही अनेकांतवाद पर्यायवाची है । आत्मवंचना से बचने का मुख्य उपाय अनेकांत को समझना है । स्याद्वद-अनेकांतवाद सप्तभंगीनय ही सुनय शाश्वतनय प्रमाणिक नय का ही निरुपण करने वाली विशिष्ट माया पद्धति है। समन्वय व्यवहार की बोधक सप्तभंगी शैली :
अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद का विस्तृत रूप सप्तभंगी में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । अनेकांत सिद्धांत के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक पदार्थ विरोधी अनेक धर्म युगलों का पिण्ड है। वे वस्तु में एक साथ रह तो सकते हैं किन्तु उन्हें एक साथ कहा नहीं जा सकता। कहने में क्रमबद्धता तथा भाषागत परम्परा चाहिए। उसे आस्ति+नास्ति+अव्यक्तव्य रूप से सात प्रकार भेद कर कहना ही प्रमाणिक
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