Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 742
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपनीति क्रिया - गर्भ से आठवे वर्ष में केशों का मुण्डन व्रत बंधन मौजी बंधन क्रिया करनी चाहिए। मंदिर में पूजन आदि करके येज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना चाहिए । व्रतचर्चा क्रिया - ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके यथा योग्य व्रतों को ग्रहण करके श्रृंगार आदि त्याग करके समस्त विधाओं का अध्ययन करना चाहिए। सबसे पहले श्रावकाचार पढ़ना चाहिए । व्रतावतरण क्रिया- गुरु की साक्षीपूर्वक भगवान की पूजन कर बारह या सोलह वर्ष के बाद जो विशेष व्रत अध्ययन के समय किये थे उनको परित्याग कर देना चाहिए अष्ठ मूल गुण आदि सामान्य व्रतों को बालक को करते रहना चाहिए। विवाह क्रिया - सिद्ध भगवान की प्रतिमा की पूजा करके उसके सामने बड़ी विभूति के साथ योग्य में उत्पन्न हुई कन्या के साथ विवाह करना चाहिए। सात दिन तक ब्रह्मचर्य से रहकर तीर्थ क्षेत्रों पर बिहार करके भोगोपभोग साधनों से सुशोभित शय्या पर संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ऋतुकाल में काम सेवन करना चाहिए । वर्ण लाभ क्रिया - विवाह होने के पश्चात् पिता की आज्ञा से जिसे धन धान्य संपदा मिल चुकी है। और मकान भी अलग मिल चुका है। ऐसी स्वतंत्र आजीविका करने लगने को वर्ण लाभ क्रिया कहते हैं। इसमें सिद्ध भगवान की पूजा के पश्चात् मुख्य श्रावकों के समक्ष पिता अपने पुत्र को धन देवे और कहे कि धर्म का पालन करते हुए तुम पृथक से रहो । कुलचर्या क्रिया- निर्दोष रूप से आजीविका करना तथा आर्य पुरुषों के करने योग्य देव पूजा आदि छह कार्य करना ही कुल चर्या कहलाती है। ग्रहीशिता क्रिया - जो दूसरे गृहस्थों में न पायी जाये ऐसी शुभ, वृत्ति, क्रिया, मंत्र विवाह ज्ञान आदि अनेक क्रियाओं से अपने आपको उन्नत करता हुआ गृहस्थों का स्वामी बनने योग्य हो । प्रशान्ति क्रिया- अपने समर्थ और योग्य पुत्र को गृहस्थी का भार सौंपकर आप स्वयं उत्तम शािं का आश्रय लें और स्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि में मन को लगायें । ग्रह त्याग क्रिया - सिद्ध भगवान की पूजन आदि करके सभूशन इष्ट जनों को बुलाकर उनकी साक्षी पूर्वक पुत्र पुत्रियों के लिए सब कुछ सौंपकर ग्रह त्याग कर देना चाहिए। और ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर इस प्रकार कहना चाहिए कि पुत्र तुम्हारे लिए यह आदेश है कि हमारे बाद यह कुल क्रम तुम्हारे द्वारा पालन करने योग्य है। मैंने धन के तीन भाग किये हैं उनका तुम्हें एक भाग धर्म कार्य में खर्च करना चाहिए दूसरा भाग अपने घर खर्च के लिए और तीसरा भाग भाईयों में बाँटना चाहिए । पुत्र के समान पुत्रियों को भी समान भाग देना चाहिए । दीक्षाद्य क्रिया - जो घर को छोड़कर सम्यग्दृष्टि है, प्रशांत है ग्रहस्थों का स्वामी है एक वस्त्र धारण क्रिया है उसके दीक्षा ग्रहण के करने के पहले जो कुछ आचरण किये जाते हैं, उन आचरणों के समूह को क्रिया कहते हैं Jain Education International 639 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772