Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 762
________________ दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों सल्लेखना के पथिक, पं. जी (20 वीं सदी के दिवंगत विद्वान) डी राकेश जैन अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थ च चिन्तयेत् । गृहीत इव के शेषु मृत्युना धर्म माचरेत् ।। आयु का कोई भरोसा नहीं। अच्छा भला बालक या युवक भी देखते-देखते इस दुनियाँ से कूच कर जाता है। तब जिनका बुढ़ापा आ गया है, इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हैं, विचार करने में स्थिरता शेष नहीं है, उन्हें शारीरिक दुर्बलता के कारण ध्यान-धारणा तो दूर सामान्य-सी परिस्थितियों का भी सामना करने की सामर्थ शेष नहीं। किन्तु उनको भी अभी वर्षो जीने की जिजीविषा है। यह संसारी प्राणी बार-बार समझाये व चेताये जाने पर भी मोहनिद्रा से जागृत नहीं होता। तब इसे मुक्ति का लाभ कैसे हो ? बिना व्रती बने मरण होने पर किसी भी गति में जाया जा सकता है। किन्तु यदि व्रती बन गये तो उसके नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति छूट कर मात्र देवगति ही होगी। जहाँ से शीघ्र ही रत्नत्रय की प्राप्ति कर मोक्ष को पाया जा सकता है। यदि खूब तपस्या करें, जप-तप, नियम-व्रत पालन करें और इसी भव से मोक्ष प्राप्त करना चाहें, किन्तु यह होना संभव नहीं। कारण, इस पंचमकाल में उत्पन्न हुये मनुष्य के वज्रवृषभनाराचसंहनन का अभाव है । इसके कारण उसे उपसर्गादि सहन करने की भी सामर्थ नहीं। और यह सामर्थ नहीं होने पर निष्कम्प शुक्लध्यान / आत्मध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिए कम से कम व्रती बनना ही इस जन्म में श्रेयस्कर है। इस जन्म का किया हुआ अभ्यास अगले भव के संस्कार रूप में कार्यकारी हो सकता है। ___ जयपुर के सीमांत क्षेत्र खानिया जी में यह मार्मिक देशना आचार्य शिवसागर जी महाराज के द्वारा उपस्थित श्रोतासमूह को दी जा रही थी। जिसमें एक श्रोता के रूप में पं. पन्नालाल जी भी वहाँ पर उपस्थित थे। आचार्य महाराज के हृदयस्पर्शी व तात्विक विवेचन ने पं. जी के विचारों व हृदय में जो आवेग पैदा किया वह शाम को ही थम सका, जबकि उन्होंने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरबाई से विमर्श कर आचार्य श्री के पास जाकर द्वितीय प्रतिमा के व्रत लेकर व्रती बनने का सौभाग्य पाया। सन् 1980 में आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में ग्रन्थराज षट्खण्डागम की वाचना का आयोजन सागर में हुआ। इस अवसर पर आपने सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर अपने व्रती जीवन में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन किया। निरंतर पठन-पाठन एवं श्रुतलेखन में व्यस्त रहने के कारण परिणामों की सम्हाल स्वयमेव होती जाती थी। सन् 1984 में जब आप अचानक सीढ़ियों से फिसल गये तो छह माह तक विस्तर पर रहना पड़ा आरंभ में तो नित्यकर्म भी उसी पर सम्पन्न होते तथा पाठादि भी। आचरण की इस विपत्ति ने आपके परिणामों में शीघ्र ही सल्लेखना ले लेने के परिणाम जागृत कर दिये। 657 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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