Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 765
________________ दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वापिस आ कमरे से सामान लेकर 1 बजे के करीब टीनसेड में पहुँच गये । तब डॉ. राजेश जी जाग रहे थे। मैं अपने शयन स्थल पर पहुँच गया किन्तु वार्तालाप जारी था। मैं लेटा हुआ था । अभी मात्र 10.12 मिनिट ही हुये होगे कि अचानक पं. जी श्वसन प्रक्रिया में साधारण से भिन्न एवं तेज आवाज आने लगी । हम दोनों ने तुरंत ही उठकर देखा कि क्या है ? हमारे देखते-देखते ही मुँह से झांक आना आरंभ हो गया । दोनों ने ही तुरंत तय कर लिया कि संभवत: अंतिम समय है। अत: मैं णमोकर मंत्र का उच्चारण करने लगा और डॉ. सा. हृदयगति को ठीक बनाने हेतु हृदय पर बल देने लगे। यह क्रम 30 से 40 सेकेण्ड ही चला होगा कि हम लोगों को महसूस हुआ कि अब कुछ भी शेष नहीं है। नाड़ी बगैरह देखी तो कुछ नहीं था। हमारी आवाज को सुनकर अशोक जी, पौत्र आकाश एवं ब्र. चक्रेश जी भी जाग गये। अत: मैंने पं. जी को चादर से आवृत कर तुरंत ही आचार्यश्री को समाचार देने के लिए प्रस्थान किया । यहाँ लगातार णमोकार महामंत्र का पाठ आरंभ हो जाने से एक-दो टीनसेड वाले लोग भी जमा होने लगे। ____ आचार्यश्री को जैसे ही कहा पं. जी को लाया था। उन्होंने इशारा किया - ले आओ तुरंत । अब मुझसे बोला ही नहीं जा रहा था। जैसे- जैसे कहा-सब कुछ ठण्डा हो गया। उन्होंने इशारे से ही पूछा-क्या हुआ ? तब मुश्किल से मैंने संक्षेप में सब कुछ कह सुनाया चूँकि अंत में उपस्थित था और सभी कुछ ठीक से हो गया, यह सुनकर उन्होंने भी संतोष की सांस ली। उसके बाद उनके अंतिम संस्कार के संबंध में भी चर्चा करने के लिए मैं और डॉ. सा. गये।। इस तरह से पं. जी ने सल्लेखना की साधना का जो अभ्यास किया यद्यपि वह आरम्भिक ही था किन्तु वह भी उनके परिणामों की विशुद्धता के लिए पर्याप्त रहा । आचार्य समंतभद्र स्वामी जैसे आचार्यो ने जो क्रम निरुपित किया है उस तक पहुँचना ही उनका लक्ष्य था, शायद उसे आगे कभी पा सकें । उन्हें शीघ्र ही सद्गति हो, ऐसी कामना हुआ विनम्र भाव से श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। __ आदरणीय पं. जी ने जिस तरह से श्रुतसेवा व मोक्षमार्ग की साधना करते हुये जीवन व्यतीत किया, इससे जहाँ मुझे अत्यंत संतोष था। लेकिन उनके जैसे कुशल मार्गदर्शक के अभाव से मैं अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था। इस कमी को तो आज भी अनुभूत करता हूँ कि उनके द्वारा निर्देशित कार्यो में योगदान कर सकूँ तो समझूगा कि मैं उनके ऋण से किञ्चित् उऋण हो रहा हूँ । G60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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