________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पर से भिन्न आत्मदृष्टि
महेन्द्र कुमार "आयुर्वेदाचार्य"
आचार्य श्री विद्यासागर औषधालय संसार में दो जाति के पदार्थ हैं - चेतन और अचेतन । अचेतन के पाँच भेद हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चार पदार्थो को छोड़कर जीव और पुद्गल यह दो पदार्थ प्रायः सबके ज्ञान में आ रहे हैं। जीव नामक जो पदार्थ है वह प्राय: सभी के प्रत्यक्ष है, स्वानुभव गम्य है । सुख-दुःख का जो प्रत्यक्ष होता है वह जिसे होता है वही आत्मा है । मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, यह प्रतीति जिसे होती है वही आत्मा है । जो रूप, रस, गंध और स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा जाना जाता है वह रूपादि गुण वाला है उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। इन दोनों द्रव्यों की परस्पर में जो व्यवस्था होती है उसी का नाम संसार है । इसी संसार में यह जीव चतुर्गति संबंधी दुखों को भोगता हुआ काल व्यतीत करता है।
परमार्थ से जीव द्रव्य स्वतंत्र है और पुद्गल स्वतंत्र है - दोनों की परिणति भी स्वतंत्र है । परन्तु यह जीव अज्ञानवश अनादिकाल से पुद्गल को अपना मान अनंत संसार का पात्र हो रहा है। आत्मा में देखनेजानने की शक्ति है परन्तु यह जीव उस शक्ति का यथार्थ उपयोग नहीं करता अर्थात् पुद्गल को अपना मानता है, अनात्मीय शरीर को आत्मा मानकर उसकी रक्षा के लिए जो जो यत्न किया करता है वे यत्न प्राय: संसारी जीवों के अनुभवगम्य होते हैं। इसलिए परमार्थ से देखा जाये तो कोई किसी का नहीं। इससे ममता त्यागो। ममता का त्याग तभी होगा जब इसे पहले अनात्मीय जानोगे। जब इसे पर समझोगे तब स्वयमेव इससे ममता छूट जायेगी। इससे ममता छोड़ना ही संसार दुःख के नाश का मूल कारण है। परन्तु इसे अनात्मीय समझना ही कठिन है। कहने में तो इतना सरल है कि “आत्मा भिन्न है शरीर भिन्न है।" आत्मा ज्ञाता दृष्टा है। शरीर रूप रस गंध स्पर्शवाला है। जब आत्मा का शरीर से संबंध छूट जाता है तब शरीर में कोई चेष्टा नहीं होती। परन्तु भीतर बोध हो जाना कठिन है । अत: सर्वप्रथम अनात्मीय पदार्थो से अपने को भिन्न जानने के लिए तत्त्व ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। आत्म ज्ञान हुए बिना मोक्ष का पथिक होना कठिन है, कठिन क्या असंभव ही है अत: अपने स्वरूप को पहचानो । तथा अपने स्वरूप को जानकर उसमें स्थिर हो ओ । यही संसार से पार होने का मार्ग है।
"सबसे उत्तम कार्य दया है। जो मानव अपनी दया नहीं करता वह पर की भी दया नहीं कर सकता। परमार्थ दृष्टि से जो मनुष्य अपनी दया करता है वही पर की दया कर सकता है।"
"इसी तरह तुम्हारी जो यह कल्पना है कि हमने उसको सुखी कर, दिया दुःखी कर दिया । इनको बांधाता हूँ, इनको छुड़ाता हूँ, वह सब मिथ्या है। क्योंकि यह भाव का व्यापार पर में नहीं होता |जैसे आकाश के फूल नहीं होते वैसे ही तुम्हारी कल्पना मिथ्या है। सिद्धांत तो यह है कि अध्यवसान के निमित्त से बंधते हैं
642
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org