Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 730
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् - हे भगवान् ! आपका अनेकांतमयी शासन सर्वोदयी तीर्थ है जो वस्तु के सभी गुणों और उसकी सभी विशेषताओं को स्वीकार करते हुए उनमें से एक को मुख्य और शेष को गौण कर स्याद्वाद द्वारा कथन वस्तु के वास्तविक स्वरूप को ग्रहण किये हुए हैं। जबकि वस्तु में विद्यमान अन्य गुणों का निषेध करने वाला एकांतिक निरपेक्ष - कथन सत्य से परे होकर सर्वांश में शून्य हो जाता है । आपकी सर्वोदयी तीर्थरूप वाणी सम्पूर्ण आपत्तियाँ को भी निरस्त कर देती हैं, जो मताग्रहियों के सर्वथा एकांत कथन को निरस्त कर परिपूर्ण विवादों को भी समाप्त कर देती हैं, क्योंकि स्याद्वादी कथन में वस्तु में विद्यमान अनंत गुणधर्मो का अस्तित्व भी अभिव्यक्त होता है। अत: आपका अनेकांत सिद्धांत और उसका स्याद्वादी कथनमयी शासन सचमुच ही सर्वोदयी तीर्थ है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में भी अनेकांत दर्शन पूर्णतया स्वीकृत है, क्योंकि वस्तु में अनेक गुणधर्मों का तथा अव्यक्त विशेषताओं को स्वीकार किये बिना उनके आविष्कार करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता वस्तुत: अनेकांत सिद्धांत और स्याद्वाद प्रणाली का आविष्कार कर भगवान महावीर स्वामी ने हमें सत्य की खोज करने में एक मौलिक एवं उदार दृष्टि प्रदान की है । जिसे विश्वदर्शन कहना अधिक तर्कसंगत प्रतिभासित होता है । धन्य है यह सिद्धांत अनेकांत तथा उसकी लोकोपकारी भावना । डॉ. मंगलदेव शास्त्री का कथन : "भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की एक अनोखी देन अनेकांत है। यह स्पष्ट है कि किसी तत्त्व में कोई भी तात्विक दृष्टि ऐकांतिक नहीं हो सकती । प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वाभाविक होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धांत को जैन दर्शन की परिभाषा में अनेकांत दर्शन कहा गया है। जैन दर्शन का तो यह आधार स्तम्भ है ही, वास्तव में इसे प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिए भी आवश्यक मानना चाहिए।" __ "विचार जगत् का अनेकांत दर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धांत का रूप धारण कर लेता है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में भी जैन दर्शन की यह देन है। इसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता।" काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर श्री फणिभूषण अधिकारी लिखते है : "जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धांत को जितना गलत समझा जाता है उतना अन्य सिद्धांत को नहीं। यहाँ तक कि श्री शंकराचार्य जी भी इस दोष से मुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धांत के प्रति अन्याय किया । ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।" सारांश प्रासंगिक विषय बिन्दु का :वास्तव में स्याद्वाद सहिष्णुता और क्षमा का प्रतीक है । सम्यक्दर्शन और स्याद्वाद के सिद्धांत 627 (627) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772