Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 724
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ “सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥ यही अनेकांतात्मक वस्तु विवेचना की चरम उपलब्धि है । शाश्वत वस्तु के विशुद्ध स्वरूप का दिग्दर्शन कराने वाला ही अनेकांत है । पदार्थ भेद सत् तथा असत् अपेक्षा भेद के कारण हैं । यही अनेकांत की विशेषता है। अनेकांत विशुद्ध वैशिष्टय : प्रत्येक पदार्थ में प्रतिसमय "उत्पाद व्यय- ध्रौव्यात्मक" परिणमन होता आ रहा है। प्रतिसमय परिणमनशील होने के बाद भी उसकी चिर संतति सर्वथा नहीं मिटती अत: नित्य है। पर्याय प्रतिसमय बदल रही है। अत: अनित्य है। अत: अनेकांत परस्पर विरोधी वस्तुओं का पिण्ड है । शांति का खजाना है। पानी से भरे गिलास को हम यह भी कह सकते हैं कि गिलास “आधा भरा है " तथा यह भी कहा जा सकता है कि गिलास "आधा खाली"। इसी प्रकार जगत् का प्रत्येक पदार्थ हमें अनेकांत की व्यापक दृष्टि प्रदान करता है ।आज के वैज्ञानिक युग में यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। एक ही अणु में जहाँ आकर्षण शक्ति विद्यमान है, वहाँ विकर्षण शक्ति भी अपना समान ही अस्तित्व रखती है। जहाँ संहारकारी वस्तु विद्यमान है,वहीं निर्माणकारी शक्ति भी अपना परिचय दे रही है । जल हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। उसके पीने से हमारी प्राण रक्षा होती है। वही जल तैरते समय गुटका लग जाने से जानलेवा सिद्ध होता है। जिस भोजन से हमारी भूख मिटती है। भूखे को प्राण रक्षक है । वही अजीर्ण होने पर विष बन जाता है। विष जो हमारे प्राणों का घातक है, वही वैद्यों द्वारा कभी - कभी औषधि के रूप में दिया जाता है। अत: अनेकांत दृष्टि अमृतमय है। वही विषमय हो जाती है, एकांतवाद से। परस्पर विरोधी धर्मों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से सापेक्ष कथन किया जाता है । तब विरोध की कोई संभावना नहीं रहती है। अनेकांत की साधक दृष्टि : यदि हमें एकांतवाद की दूषित विचारधारा से बचना है तो अनेकांतवाद की शरण ही को शाश्वत सहारा है। अत:इसके स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को तत्व की कुंजी कहा है। सारी समस्याओं का प्रमाणिक समाधान केवल अनेकांत शैली के कथन से ही संभव है। अकलङ्कस्वामी ने परमात्मा की भक्ति अनेकांतमय शैली में की है। परमात्मा चिदात्मा है चैतन्य धर्म के द्वारा परमार्थ से तो वस्तु अनिर्वचनीय है। सांसारिक व्यवहार निमित्त-नैमित्तिक संबंध से बन रहा है। जिस काल में आत्मा का मोह चला जाता है, उस समय यह ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा से संबंधित नहीं होते । अनेकांत अनंत ज्ञानात्मक है । “सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य" का साकार कथन ही अनेकांत है। वास्तव में व्यवहार हमारा उपकारी श्रुतज्ञान है। इसी से केवलज्ञान का निर्णय हो जाता है ।बिना श्रुतज्ञान से कभी भी मोक्ष का निरूपण नहीं हो सकता। भगवान की दिव्यध्वनि को दर्शाने वाला श्रुतज्ञान है । वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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