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कृतित्व/हिन्दी
पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी का शिक्षा - जगत् में योगदान
पूज्य वर्णी जी अपने प्रवचनों एवं उपदेशों में घोषित करते रहते थे । कि "आत्मतत्त्व पर श्रद्धा करो, वह परमज्ञानवान् पदार्थो का दृष्टा, आनन्दमयी और अत्यन्त शक्तिशाली, अतीन्द्रिय और अरुपी एक विचित्र पदार्थ है, जो सभी प्राणियों एवं मानवों के शरीर में विद्यमान है । 'पंचाध्यायी' ग्रन्थ में युक्ति से सिद्ध किया गया है।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अहं प्रत्ययवेद्यत्वात्, जीवस्यास्तित्वमन्ववात् ।
एको दरिद्र एकच, श्रीमानिति च कर्मणः ॥
अर्थात् इस जगत में आत्मतत्त्व का अस्तित्व 'अहंप्रत्यय' (मैं ऐसा ज्ञान) के द्वारा जानने योग्य है, जो अनेक गुणों से समपन्न है । कोई प्राणी दरिद्र है, कोई श्रीमान है कोई सुखी है, कोई दुःखी है - ये सब दशायें अपने- अपने कर्म के उदय से होती है। इसी विषय को वैदेशिक वैज्ञानिक हैकेब ने भी कहा है कि - "मैं आत्मा
कहते हैं, जड़ को नहीं, अतएव व्यक्ति अपने को " मैं बोलता है । "
उस आत्मा का अभिन्न, एक प्रधान ज्ञानगुण है। उस ज्ञान की प्रभावना दो प्रकार से होती है - (1) स्वाध्याय से, (2) शिक्षा से । वर्णा जी ने अपने ज्ञान का विकास सबसे प्रथम प्राथमिक शाला, माध्यमिक शाला, उच्चतर, माध्यमिक शाला, स्नातक कक्षाओं और स्नातकोत्तर कक्षाओं में गुरू के माध्यम से किया है । 'न्यायाचार्य' उपाधि को वाराणसी में प्राप्त करने के पश्चात् स्वाध्याय एवं प्रवचनों से अपने ज्ञान को उच्चश्रेणी पर वृद्धिंगत किया है। यह भी कथन था - "अनवद्या हि विद्या स्यात् लोकद्वय - सुखावहा । "
स्वयं शिक्षित है, वही विज्ञ - व्यक्ति अन्य मानवों को शिक्षा के माध्यम से विद्वान् बना सकता है। श्री वर्णी जी का शिक्षा का लक्ष्य " आध्यात्मिक विकास के साथ समाज कल्याण का पुरुषार्थ " यह निश्चित था । यह सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है ।
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दिनांक 20.11.98 को कलकत्ता में 'भा. वैज्ञानिक जगदीश बोस जन्म शताब्दी महोत्सव' के समय भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. सर राधाकृष्णन ने स्वकीय भाषण में कहा था- "संसार के अन्यदेशों की शिक्षापद्धति का अन्य उद्देश्य हो सकता है, किन्तु भारतवर्ष के युवक-युवतियों का आध्यात्मिक तत्त्व की ओर ले ही यहाँ की शिक्षा का प्रधान उद्देश्य रहा है । और यही होना भी चाहिये । यही हमारा राष्ट्रीय आचरण है । भारतवर्ष की यही विशेषता है कि वह दूसरों पर अपना विचार लादता नहीं, बल्कि अन्य मान्यतावाले मानवों को लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होता है ।" (अहिंसावाणी, वर्ष 8, अंक 9 दिसम्बर 1958)। “महात्मा गाँधी बारम्बार कहा करते थे कि बाहरी शक्तियों से मत डरो, अपनी आत्मा को सुदृढ़ बनाओ। आन्तरिक शक्ति का संचय करो।" - ( जवाहरलाल नेहरू, उक्त पत्रिका)
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