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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम का वाक्य है । जब अशुभोपयोग रूप पर्याय का अभाव होता है तब शुभ उपयोग रूप पर्याय का प्रार्दुभाव (उत्पाद) होता है और जब शुभोपयोग रूप पर्याय का अभाव (व्यय) होता है तब शुद्धोपयोग रूप पर्याय का प्रादुर्भाव (उत्पाद) होता है और जब शुद्धोपयोग रूप पर्याय का अभाव होता है तब केवल ज्ञान होता है। जैसे शुभोपयोग रूप पर्याय के सामने अशुभोपयोग रूप पर्याय हेय है और शुद्धोपयोग पर्याय के सामने शुभोपयोग पर्याय हेय है वैसे ही केवल ज्ञान के सामने शुद्धोपयोग पर्याय हेय है। केवल ज्ञान जीव के ज्ञान गुण की शुद्ध पर्याय है वही आत्मा को अनंत सुख का संवेदन कराती है। क्योंकि स्व संवेदन, ज्ञान गुण की पर्याय है और स्वरूपाचरण ,चारित्र गुण की पर्याय है। स्वरूपाचरण जीव की सब अवस्थाओं में नहीं पाया जाता है। पर्याय क्रमवर्ती होती है अर्थात एक पर्याय का व्यय होता है तब दूसरी पर्याय का उत्पाद होता है। पर्याय व्यापक नहीं बल्कि व्याप्य होती है और गुण व्यापक होता है । ज्ञान गुण से संवेदन होता है और ज्ञान गुण हर अवस्था में पाया जाता है।
समयसार गाथा एवं प्रवचनसार गाथा 30 की टीका करते हुए आचार्य अमृत चन्द स्वामी लिखते हैं कि जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्र नील मणिरत्न अपने प्रभास (प्रकाश) समूह से दूध में व्याप्त होकर रहता हुआ दिखाई देता है वैसे ही संवेदन अर्थात ज्ञान आत्मा से अभिन्न होकर सदा रहता है वही ज्ञान आत्मा को स्वपर का ज्ञान कराता है, अनुभव कराता है, उपलब्ध कराता है, वेदन कराता है अत: ज्ञान, अनुभव, वेदन, उपलब्धता ये सब एकार्थवाची हैं।
तत्त्वानुशासन श्लोक 161 में आचार्य नागसेन स्वामी लिखते हैं कि योगियों को जो स्वयं के द्वारा स्वयं का ज्ञेयपना और ज्ञातापना होता है, उसी का नाम स्वसंवेदन है, उसी का नाम आत्मा का अनुभव है,
और उसी का नाम आत्मदर्शन है। इसी से स्पष्ट होता है कि स्वसंवेदन योगियों को ही होता है। अब यहां पुनः प्रश्न उठता है कि जो हर अवस्था में ज्ञान गुण पाया जाता है और उससे जो आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, वह किस रूप में होता है उसके संबंध में प्रमेयरत्नमाला 2/5 में इसी प्रकार एक प्रश्न उठाते हुए कहा है कि योगियों को जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है उससे अन्य संसारी जीवों को भी स्वसंवेदन ज्ञान होता है उसका कथन क्यों नहीं किया। इसका उत्तर देते हुए कहा है कि जो सुख दुख आदि के ज्ञान स्वरूप स्वसंवेदन अन्य संसारी जीवों को होता है उसका मानस प्रत्यक्ष में अन्तरभाव हो जाता है और जो इन्द्रिय ज्ञानस्वरूप संवेदन होता है उसका इन्द्रिय प्रत्यक्ष में अतभाव हो जाता है, वह भी मानस प्रत्यक्ष में गर्भित होता है । इस प्रकार के स्वसंवेदन का ज्ञान सम्यक्दृष्टि को ही नहीं बल्कि प्रत्येक संसारी प्राणी को होता है जैसे यदि कोई कड़वा, मीठा, कषायला आदि वस्तु का सेवन करता है और कांटा आदि चुभता है तो उसका संवेदन तो होगा ही क्योंकि संवेदन करना आत्मा का स्वभाव है और जितने भी औदायिक औपशमिक आदि भाव होते है वे सब जीव के अपने ही हैं ऐसा तत्वार्थ सूत्र के अध्याय 2 के प्रथम सूत्र में कहा है।
उपर्युक्त समस्त आगम प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शुद्धोपयोग यानि स्वरूपाचरण चारित्र महाव्रती मुनि को होता है जो सप्तम गुणस्थान से प्रारंभ होकर 12वें गुणस्थान में पूर्ण होता है और 13वें गुणस्थान में उसका फल कैवल्य की प्राप्ति रूप होता है।
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