________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनियतविहारी साधक की सल्लेखना भी ठीक तरह से होती है क्योंकि वह जगह-जगह विहार करते रहने के कारण उन स्थानों में भी परिचित होता है, जहाँ धार्मिकता होती है। एकांत, शांत, निराकुलता रह सकती है । नियतवासी प्राय: स्थान विषयक अथवा अपने निकटस्थ लोगों के प्रति रागभाव रखने लगते हैं। अत: दूसरे अपरिचित स्थान और मनुष्यों के बीच पहुँचकर साधक भली प्रकार से सल्लेखना ग्रहण कर आत्मकल्याण कर सकता है कहा भी है
-
सदरूपं बहुसूरि भक्तिकयुतं क्षमादि दोषोज्झितं, क्षेत्र पात्र मीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य नि:संगता । सर्वस्मिन्नपि चेतनेतर बहि: संगे स्वशिष्यादिके, गर्वस्यापचयः परीषहजयः सल्लेखना चोत्तमा ॥
मुनिराज को सल्लेखना धारण करने के लिए ऐसे क्षेत्र देखने चाहिए जहाँ पर राजा उत्तम धार्मिक हो, जहाँ के लोग सब आचार्यादिको की बहुत भक्ति करने वाले हो तथा जहाँ के लोग आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करवाने वाले हो । जहाँ पर निर्धन और दरिद्र प्रजा न हो। इसी प्रकार पात्र ऐसे देखने चाहिए जिनके शरीर त्याग करने में भी निर्मोहपना हो तथा अपने शिष्यादिकों में भी अभिमान न हो और जो परिषहों को अच्छी तरह जीतने वाले हों ऐसा क्षेत्र और पात्रों को अच्छी तरह देखकर सल्लेखना धारण करनी चाहिए ।
उक्त व्यवस्था अनियतविहारी साधु की ही बन सकती है जो एक स्थान पर रहते हैं, उनकी सल्लेखना समाधि भी आगमोक्त रीति से कैसे संभव हैं ? अत: वर्तमान में मुनि / आर्यिका / त्यागी / व्रती सभी को विचार करना चाहिए कि जीवन भर की सार्थकता निहित स्वार्थ के कारण न खो जाये ।
मूलाचार प्रदीप में कहा है- प्रासुक स्थान में रहने वाले और विविक्त एकांत स्थान में निवास करने मुनि किसी गाँव में एक दिन रहते हैं और नगर में पाँच दिन रहते हैं। सर्वथा एकांत स्थान को ढूँढने वाले और शुक्लध्यान में अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में गंध - गज (मदोन्मत्त) हाथी के समान ध्यान के आनंद का महासुख प्राप्त करते हैं। 31-32
आचार्य शिवार्य वसतिका आदि में ममत्व के अभाव को भी अनियत् विहार मानते हैं।
Jain Education International
सधी उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे ।
सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो ॥ भग. आ. 155
वसतिका में, उपकरण में, ग्राम में, नगर में, संघ में, श्रावकों में ममता के बंधन को न प्राप्त होने वाले अनियतविहार करने वाला साधु है। अर्थात् जो ऐसा नहीं मानता कि यह वसतिका मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ सभी परद्रव्यों, परक्षेत्रों, परकालों, से नहीं बंधा हूँ वह अनियतविहार करने वाला है।
उक्त सभी लाभ अनियतविहार करने वाले को ही प्राप्त हो सकते है, जो एक स्थान पर रहकर धर्म का पालन करना चाहें, वह संभव नहीं है।
साधु को निरंतर विहारी होने के कारण श्रेष्ठ कहा है कवि ऋषभदास ने कहा है -
572
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org