Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 707
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम के आलोक में अनुयोग का कथन __ डॉ. आनंद प्रकाश शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य कोलकाता शास्त्र में पुण्य भाव को धर्म बहुत जगाता है ऐसा कहा है और पुण्य भाव को व्यवहार मोक्षमार्ग भी कहा है एवं पुण्य को परम्परा मोक्ष का कारण भी कहा है परन्तु नय का एवं अनुयोग का ज्ञान नहीं होने के कारण जीव शास्त्र पढते हुए भी मिथ्यादृष्टि का मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है । जैसे पुरूषार्थ चार कहे है - धर्मअर्थ-काम-मोक्ष परन्तु धर्म का अर्थ समझता नहीं है एवं उसका परमार्थ अर्थ भी समझता नहीं है मात्र शास्त्र का शब्द ज्ञान कर तोते की माफिक बोल देता है। इसी का परमार्थ अर्थ यह है कि धर्म का अर्थ पुण्य है, पुण्य से अर्थ अर्थात् धन मिलता है और अर्थ अथवा धन से भोग की सामग्री मिलती है और इन तीनों का अभाव करने से अर्थात तीनों का त्याग करने से मोक्ष मिलता है । यह परमार्थ का ज्ञान न होने के कारण मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। इसलिए सर्वप्रथम मोक्षमार्गी जीवों को अनुयोगों का ज्ञान करना चाहिये । क्योंकि तीनों अनुयोग अलग-अलग कथन करते हैं और अज्ञानी इसका ज्ञान न होने के कारण शास्त्र स्वाध्याय करते हुए भी मिथ्यादृष्टि ही रह जाता है। द्रव्यानुयोग और करणानुयोग का निमित्त- नैमित्तिक संबंध है और द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग का कारण कार्य संबंध है। यही ज्ञान न होने से चरणानुयोग के कथन को द्रव्यानुयोग समझ जाता है। और द्रव्यानुयोग के कथन को चरणानुयोग समझ जाता है । यही मिथ्यात्व रहने की महान भूल है इस भूल का नाश करने के लिए अनुयोग का ठीक-ठीक ज्ञान करना चाहिये। चरणानुयोग - यह अनुयोग रागादि भाव छुडाने का अभिप्राय रखते हुए यह पर पदार्थ के त्याग का उपदेश करता है । यद्यपि पर पदार्थ का त्याग नहीं होता परन्तु उसके प्रति जो ममत्व भाव है उसी का त्याग करना कार्यकारी है। जैसे रस छोड देवे और राग न छूटे तो त्याग कोई कार्यकारी नहीं है, क्योंकि रस छोडना धर्म नहीं है परन्तु राग छोडना धर्म है। चरणानुयोग छद्मस्थ जीवों के बुद्धिगम्य बातों का ही व्याख्यान करता है लोक का सर्व व्यवहार चरणानुयोग से ही चलता है। चरणानुयोग में गुणस्थान मात्र बाह्य प्रवृत्ति पर हैं जिसके आधार पर लोक की प्रवृत्ति चलती है चरणानुयोग नोकर्म को बाधक-साधक मानता है । पात्रादिक का भेद चरणानुयोग में ही होता है जिस कारण चरणानुयोग में ही भक्ति आदि क्रियायें होती हैं। करणानुयोग में पात्रादिक का भेद नहीं है जिस कारण से करणानुयोग में भक्ति होती ही नहीं है। क्योंकि जिस जीव का भाव ग्यारहवां गुणस्थान का है वही जीव अपने भाव से गिरकर समय मात्र में मिथ्यात्व आदि गुणस्थान में आ जाता है। जहां परिणामों की ऐसी स्थिति है वहां छमस्थ जीव परिणामों को देखकर भक्ति कर नहीं सकता, क्योंकि छद्मस्थ जीव का ज्ञानोपयोग असंख्यात समय में ही होता है। इसलिए भक्ति में प्रधानता चरणानुयोग की ही है। 604 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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