Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 709
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कर्मको ही बाधक मानता है और कर्म के अभाव को साधक मानता है। कर्म प्रकृति को छोड़ने को यह अनुयोग उपदेश देता है । स्त्री को संयत गुणस्थान होता है वह करणानुयोग की अपेक्षा से माना जाता है परन्तु चरणानुयोग की अपेक्षा से स्त्री का पंचम ही गुणस्थान मानना चाहिए और पंचम गुणस्थान रूप उसका आदर सत्कार करना चाहिये । करणानुयोग की अपेक्षा से बाह्य परिग्रह होते हुए जीव मिथ्यात्व में से सीधा चतुर्थ गुणस्थान रूप भाव, पंचम गुणस्थान रूप भाव एवं सप्तम गुणस्थान रूप भाव कर सकता है। बाह्य पदार्थ करणानुयोग बाधक मानता नहीं। श्री पांडव युधिष्ठिरादिक नग्न दिगम्बर अवस्था में शत्रुजय पहाड़ पर ध्यानावस्था में थे तब अपने ही भाई ने पूर्व बैर के कारण लौह का गहना जैसे मुकुट, हार, कुण्डल, बाजूबंध इत्यादि तप्तायमान कर उनको पहना दिया । इस अवस्था में मुनि महाराज श्रेणी मांडकर तीन बडे भाईयों ने सिद्ध पदवी प्राप्त कर ली और दो लघु भ्राता ने सर्वार्थसिद्धि पद की प्राप्ति कर ली। देखिए बाहय गहनों का संयोग होते हुए भी उन महात्माओं ने अपना निर्मल परिणाम कर सिद्धगति प्राप्त कर ली । इससे सिद्ध होता है कि करणानुयोग बाहय पदार्थो को बाधक नहीं मानता। करणानुयोग में प्रधानपना निमित्त का ही है जिस प्रकार कर्म का उदय होगा उसी प्रकार ही नैमित्तिक आत्मा की अवस्था होगी। मनुष्य गति का उदय हुआ तब आत्मा को नियम से मनुष्य गति में आना ही पड़ा। मिथ्यात्व का उदय आने से आत्मा की परिणति नियम से मिथ्यात्व की होनी ही चाहिए करणानुयोग में ही संयोग संबंध होता है । जो जीव निमित्त को नहीं स्वीकार करता उस जीव ने करणानुयोग माना नहीं । करणानुयोग को न मानने वाला एकांत मिथ्यादृष्टि है। करणानुयोग और द्रव्यानुयोग में भी परस्पर विरोध है, यदि दोनों अनुयोग समान कथन करते तो दो अनुयोग मिलकर एक अनुयोग बन पाता । परन्तु वस्तु का स्वरूप ऐसा नहीं है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को भी स्वीकार करना पड़ता है कि अपनी इच्छा राग करने को नहीं है तो भी मोहनीय कर्म के उदय में कर्म की बरजोरी से आत्मा में रागादि हो ही जाता है। यह किसकी प्रधानता है। निमित्त की या उपादान की। अनंतवीर्य के धनी तीर्थकर देव को भी अपने आत्मा के प्रदेश तीन लोक के बराबर कर्म के उदय से करना ही पड़ते हैं। यह किसकी महिमा है। द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा चेतन प्राण से जीता है जब करणानुयोग कहता है कि आत्मा चार प्राणों से जीता है द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा खाता नहीं तब करणानुयोग कहता है आत्मा खाता है । द्रव्यानुयोग कहता है आत्मा अमूर्तिक है तब करणानुयोग कहता है कि आत्मा मूर्तिक है । यदि मूर्तिक नहीं होता तो आत्मा को सुई लगना नहीं चाहिए । द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा असंख्यातप्रदेशी है जबकि करणानुयोग कहता है कि आत्मा स्वदेह प्रमाण है द्रव्यानुयोग कहता है कि आत्मा ज्ञान से देखता है तब करणानुयोग कहता है आत्मा इन्द्रियों से देखता है । ज्ञान का क्षयोपशम होते हुए भी इन्द्रिय बिना कैसे देखेगा । करणानुयोग कहता है कि ज्ञान चेतना चौथे गुणस्थान से स्वीकार करता है जबकि द्रव्यानुयोग चेतना तेरहवें गुणस्थान से स्वीकार करता है। द्रव्यानुयोग - इस अनुयोग में प्रधान रूप से आत्मा की ओर से ही उपदेश दिया जाता है जो यथार्थ ही उपदेश है इस उपदेश द्वारा ही आत्मा विशेष कर अपने कल्याण के मार्ग को समझ सकता है। इस अनुयोग में उपचार से कथन नहीं किया जाता। जिस कारण से आत्मा दुखी है वही यथार्थ कारण कहा जाता है आत्मा 606 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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