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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रत्नत्रय और तप :
अध्यात्म में परद्रव्यों से पृथक् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप शुद्ध चैतन्य आत्मतत्त्व में स्थित होकर परिणमन करने वाले जीव मोक्षमार्ग पर स्थित माने गये हैं। इसलिए उनकी दृष्टि में व्रत, नियम शील तप आदि परमार्थ से पृथक बाह्य अज्ञान रूप हैं अर्थात् अज्ञानियों द्वारा अंतरंग से भी किये जाने वाले शुभकार्य रूप शील, तप आदि मोक्ष के कारण नहीं हैं एवं ज्ञानियों के बाह्य शील,तप आदि शुभकार्य नहीं होने पर भी उनके मोक्ष का सद्भाव है। आगम में मोक्षोन्मुख शुभकार्यों को परम्परया मोक्ष का कारण माना गया है । अपराजितसूरि के अनुसार तप और संयम ज्ञानभावना के कार्य है, जो ज्ञानभावना के होने पर होते हैं, उसके अभाव में नहीं होते । वे ज्ञानभावना के होने पर होते ही हैं ऐसा नियम नहीं। ज्ञान के बिना सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते । चारित्र मोह के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा सहित ज्ञान होने पर होते हैं। कारण के होने पर कार्य अवश्य होता ही है, ऐसा नियम नहीं है । काष्ठ आदि की आग, बिना धूम के भी देखी जाती है। मरण समय रत्नत्रय :___जीवनभर ज्ञान, दर्शन और चारित्र का निर्दोष पालन करने पर भी मरण समय यदि साधक रत्नत्रयरूप परिणाणों को नष्ट करके मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम रूप परिणामों को ग्रहण करता है, जब उसके अनंत संसार होता है। यदि किसी के मरण समय मिथ्यात्व भाव न हो एवं वह गुप्ति समिति रूप चारित्र भी निश्चल हो, फिर भी वह परीषहों से घबड़ाकर संक्लेशभाव को प्राप्त होता है, तब उसका सुदीर्घ संसार होता है। जहाँ एक ओर ग्रन्थकार ने शास्त्रों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मरण समय अनादि मिथ्यादृष्टि भद्दण आदि ने क्षणमात्र में सभी कर्मों को काटकर सिद्ध पद प्राप्त किया, अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है कि मरण समय की आराधना ही सार है, यह सर्वत्र प्रमाण नहीं है। जैसे किसी को अप्रत्याशित स्थाणु में से धन का लाभ हो जाये, तो उसे सर्वत्र प्रमाण नहीं माना जा सकता। उसी तरह किसी ने मरणपूर्व रत्नत्रय आदि का अभ्यास नहीं किया, कदाचित मरते समय किया और सिद्धी प्राप्त हो गयी तो उसे सर्वत्र प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मरण पूर्व तप आवश्यक :
__ मरण पूर्व तप आवश्यक माना जाता है, अन्यथा मरण समय साधक अपने लक्ष्य से च्युत हो सकता है। जिस प्रकार संकेत, भ्रमण, लंघन आदि की बिना शिक्षा प्राप्त किये किसी अश्व को युद्धभूमि में सवारी के लिए ले जाया जाये, तब वह कार्यकारी नहीं होगा, उसी तरह साधक का तप, संयम आदि में पूर्व अभ्यस्त होना जरूरी है, जिससे उसके तप, संयम आदि मरण समय कार्यकारी हो सकें। इसलिए आराधना कार्य के लिए परिकर्म आदि सभी कालों में किये जाने चाहिए क्योंकि उससे अंत समय की आराधना सुखपूर्वक साध्य होती है। संयम के बिना तप निरर्थक :"संजमहीणं च तवं जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ" उद्धरण पूवर्क अपराजित सूरि ने लिखा है कि संयम
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