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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों जीवनाकांक्षा -
सल्लेखना के समय अपनी प्रसिद्धी देखकर, अपनी सेवा करने वालों को देखकर, अपनी महिमा जानकर या अन्य किसी कारण से और जीने की आकांक्षा रखने वाले को जीवनाकांक्षा रूप अतिचार लगता है। मरणाशंसा -
रोगादिक से प्राप्त कष्ट से साधक का मन संक्लेशित होने लगे और पीड़ा सहन न कर पाने की स्थिति में उसके द्वारा शीघ्र मरण की भावना करना मरणाशंसा है। सुहृदनुराग -
बाल्यावस्था में अपने साथ खेलने वाले, बुरे समय में साथ देने वाले मित्रों से मृत्यु से पूर्व मिलने की आकांक्षा सुहृदनुराग है। सुखानुबंध -
पूर्व में भोगे गये भोगों को स्मरण करना तथा उनमें अनुराग रखना सुखानुबंध नामक अतिचार है। निदान -
समाधि के कठिन तपों के प्रभाव से जन्मान्तर में मुझे उच्चकोटि का वैभव प्राप्त हो, इस प्रकार की भावना करना निदान नामक पाँचवां अतिचार है। 14. समाधि का फल :
समाधिमरण की विस्तृत विधि का कथन करने के उपरांत अतिचारों का भी विधिवत् निरुपण सागारधर्मामृत में है । इसके पश्चात विधिपूर्वक मरण प्राप्त करने वाले जीव को स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होगी ऐसा निर्देश करते हुए आशाधर जी कहते हैं कि -
श्रावक: श्रमणो वान्ते कृत्वा योग्यां स्थिराशयः ।
शुद्धस्वात्मरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदित: ॥" अर्थात् जो श्रावक अथवा मुनि आगे कही जाने वाली विधि के अनुसार एकाग्रचित से अपनी शुद्धात्मा में लीन होकर प्राण छोड़ता है उसे स्वर्गादि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है । तथा मोक्ष का भागी होता है। यह कथन वर्तमान हुंडावसर्पिणी काल को ध्यान में रखकर कहा गया है। अन्य ग्रन्थकारों ने लिखा है कि उत्तम समाधिधारक मोक्ष प्राप्त करता है । मध्यम समाधि धारक सर्वार्थसिद्धी, ग्रैवेयकों, परमोत्तम सोलवें स्वर्ग में, सौधर्मादि स्वर्गो में भोगों को भोगकर अंत में तीर्थंकर या चक्रवर्ती पद की प्राप्ति करता है। जो जघन्य रीति से धारण करता है वह देव एवं मनुष्यों के सुखों को भोगकर सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त करता है। 15. मृत्यु अवश्यम्भावी है : शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है, इसलिए यदि शरीर रत्नत्रय की साधना में सहयोगी हो तो उसे
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