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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 10. विचलित साधक का स्थितिकरण :
जब कोई साधक स्वीकार किये गये समाधिमरण से विचलित होने लगता है तब निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि वह साधक का स्थितिकरण करे, क्योंकि जब कोई सल्लेखना धारक अन्न-जल के त्यागोपरांत विचलित होकर पुनर्ग्रहण की भावना करे तो उसे ग्रहण करने योग्य विविध प्रकार की उत्तम सामग्री दिखाना चाहिए। यदि कदाचित् अज्ञानता के वशीभूत होकर वह आसक्त होने लगे तो शास्त्रसम्मत अनेक कथाओं द्वारा साधक के वैराग्य में मदद करनी चाहिए। साथ ही यह भी बतलाना चाहिए कि तीनों लोकों में एक भी ऐसा पुद्गल परमाणु शेष नहीं है, जिसे इस शरीर ने नहीं भोगा है । अत: इस मूर्तिक (भोजनादि) से अमूर्तिक आत्मद्रव्य का उपकार किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है। अपितु यह तो वह अद्भुत समय है जब मन की एकाग्रता अन्य विषयों से हटाकर आत्मकल्याण की भावना में नियुक्त करने पर अनन्तानंत काल से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा शीघ्र होती है, क्योंकि अंत समय का दुर्ध्यान अधोगति का कारण बन जाता है । इसी अंत समय की लालसा के दुष्परिणाम को दर्शाते हुए सागारधर्मामृत में स्पष्ट लिखा है कि
क्वापि चेत् पुद्गले सक्तो नियेथास्तद् ध्रुवं चरेः ।
तं कृमीभूय सुस्वादुचिर्भटासक्तभिक्षुवत्॥ अर्थात् जिस पुद्गल में आसक्त होकर जीव मरेगा उसी जगह उत्पन्न होकर संचार करेगा। जैसे तरबूज में आसक्त होकर मरा साधु उसी में कीड़ा बनकर उत्पन्न हुआ था। 11. पित्तादि से पीड़ित श्रावक - विशेष को निर्देश :
अन्त समय में साधक पुद्गल में आसक्त न हो, इसका ध्यान रखते हुए निर्यापकाचार्य पित्तादि से पीड़ित साधक को मरण से कुछ समय पूर्व ही जल का त्याग करवाते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इसी बात का निर्देश करते हुए पं. मेधावी कहते हैं कि - पित्तकोप, उष्णकाल, जलरहित प्रदेश तथा पित्तप्रकृति इत्यादि में से किसी एक भी कारण के होने पर निर्यापकाचार्य को समाधिमरण के समय जल पीने की आज्ञा उसके लिए देनी चाहिए तथा शक्ति का अत्यंत क्षय होने पर एवं निकट मृत्यु को जानकर धर्मात्मा श्रावक को अंत में जल का भी त्याग कर देना चाहिए।"
अंत समय तक जल के निर्देश के पीछे गहरा भाव छिपा है, जिसका अभिप्राय यह है कि - धर्म सहित मरण ही सफलता का सूचक है । इसी बात की पुष्टि करते हुए पं. आशाधर जी ने कहा है कि -
आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा।
सत्त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम् ॥" अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु पूर्व तक भी धर्म पालन किया, परन्तु मरण-समय धर्म की विराधना होती है तो सब किया गया धर्म व्यर्थ है । किन्तु जीवन भर कुछ भी नहीं किया और मरण धर्मसहित किया तो वह धर्म चिरकाल में संचित पापों का प्रक्षालन करने वाला है।
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