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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 7. भक्तप्रत्याख्यान की स्थिति :
धवलाकार वीरसेन स्वामी ने भक्तप्रत्याख्यान के जघन्य, मध्यम और उत्तम- इन तीन भेदों का वर्णन करते हुए कहा है कि -
तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्ट मध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रमाणम् मध्यमेतयोरन्तरालमिति ।"
__अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान की विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उत्कृष्ट का बारह वर्ष है । इन दोनों का अंतरालवर्ती सर्वकाल-प्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यान मरण का है। 8. सल्लेखना - योग्य स्थान :
योग्य स्थान-विशेष के प्रसङ्ग में पं. आशाधर जी कहते हैं कि उपसर्ग से यदि कदलीघातमरण की स्थिति उत्पन्न हो तो साधक योग्य स्थान का विकल्प त्यागकर भक्तप्रत्याख्यान को धारण करे । इसी विषय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि -
भृशापर्वतकवशात् कदलीघातवत्सकृत् ।
विरमत्यायुषि प्रायमविचारं समाचरेत् ॥" अर्थात् अगाढ अपमृत्यु के कारणवश कदलीघात के समान एक साथ आयु के नाश की उपस्थिति होने पर साधक विचार रहित अर्थात् समाधि के योग्य स्थान का विचार न करके भक्तप्रत्याख्यान को स्वीकार करे । सल्लेखना हेतु योग्य स्थान को इङ्गित करते हुए धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि -
सन्यासार्थी कल्याणस्थानमत्यन्तपावनम् ।
आश्रयेत्तु तदप्राप्तौ योग्यं चैत्यालयादिकम् ॥" अर्थात् सन्यास (सल्लेखना) के अभिलाषी पुरुषों को चाहिए कि जिस स्थान में जिन भगवान का ज्ञान कल्याणक हुआ है। ऐसे पवित्र स्थान का ग्रहण करें और यदि ऐसे स्थानों की कारणान्तरों से प्राप्ति न हो सके तो जिनमंदिरादि योग्य स्थानों का आश्रय लेना चाहिए।
कदाचित् साधक द्वारा स्थान की खोज करते हुए यदि रास्ते में भी मरण हो जाये तो भी वह श्रेष्ठ माना गया है। इस सम्बंध में पं. मेघावी ने अपने धर्मसंग्रह में कहा है कि - सल्लेखना बुद्धि से किसी तीर्थस्थान को यदि गमन किया हो और वहाँ तक पहुँचने से पहले ही यदि मृत्यु हो जाये तो भी वह आराधक है, क्योंकि समाधिमरण के लिए की हुई भावना भी संसार का नाश करने वाली है।
पद्मकृत श्रावकाचार में मरण - स्थान के लिए प्रासुक शिला को उपयुक्त कहा है।" 9. स्त्रियों के लिए निर्देश:
वैसे तो स्त्रियों के लिए जिनेन्द्र भगवान् ने अपवाद लिङ्ग (सवस्त्र दीक्षा) ही कहा है, परन्तु अंत समय में जिसने परिग्रहादि उपाधियाँ छोड़ दी हैं, वे स्त्रियाँ भी पुरुष के समान औत्सर्गिक लिङ्ग (निर्वस्त्र दीक्षा) ग्रहण कर सकती है।"
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