Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 681
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बारहवें गुणस्थान तक वीतराग छद्मस्थ होते हैं। ध्यातव्य है कि छमस्थ जीवों में ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्मों का सदैव क्षयोपशम रूप से अस्तित्व पाया जाता है, उदय रूप से सद्भाव नहीं पाया जाता है। जीवों के ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास या हास का कारण भी क्षयोपशम की तरतमता है, जो दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या रूप तथा उसके उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम से सम्यक् रूप होता है। ज्ञानावरण कर्म का उदय संसार का कारण होने से हेय है । क्षयोपशमिक परिणतियाँ यथासम्भव मोक्ष का कारण होने से उपादेय हैं, परन्तु ये छूट जाती हैं, केवल क्षायिक परिणतियाँ ही उपादेय है, जो पुन: नहीं छूटती है। पदार्थों को नहीं जानने रूप अज्ञान, ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। अत: उसे औदयिक कहा जाता है। ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं है तब मिथ्यादर्शन के उदय से होने वाला उसे क्षयोपशमिक अज्ञान कहेगे। कुन्दकुन्द के अनुसार जो आत्मा इस कर्म के परिणाम तथा नोकर्म के परिणाम को करता नहीं है, किन्तु जानता है, वह ज्ञानी है। आगमिक दृष्टि से ज्ञानी और अज्ञानी होने का आधार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व हैं। धवला में लिखा है कि मिथ्यादृष्टि ज्ञानी नहीं हो सकते। मिथ्यात्वकर्म के उदय से वस्तु के प्रतिभाषित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की निवृत्ति नहीं होने से मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहा जाता है। मिथ्यावृष्टि का ज्ञान, ज्ञान का कार्य नहीं करता। इसलिए उसमें अज्ञानपना है । जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है, जो मिथ्यादृष्टि में नहीं पाया जाता है । अत: उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है, अन्यथा जीव के अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है वस्तुत: ज्ञान मिथ्या नहीं होता मिथ्यात्व के कारण ही मिथ्या कहा जाता है। भगवती आराधना में लिखा है कि शुद्धनय की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, अज्ञान है । टीकाकार ने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का वाचक नहीं है बल्कि ज्ञान शब्द का अर्थ यथार्थ ज्ञान ही है। जिसके द्वारा वस्तु जानी जाती है, वह ज्ञान है। जो वस्तु में नहीं पाये जाने वाले रूप को दर्शाता है, वह वस्तु को नहीं जानता । इस दृष्टि से ज्ञान शब्द का अर्थ मिथ्याज्ञान नहीं है। मिथ्याज्ञान अज्ञान ही है। फलितार्थ अज्ञान के दो भेद हुए - 1. औदयिक अज्ञान और 2. क्षयोपशमिक अज्ञान | पदार्थों को नहीं जानने रूप अज्ञान ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है इसलिए औदयिक है। ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यक्दर्शन सहित नहीं है तब उसे मिध्यादर्शन के उदय से होने वाला क्षयोपशभिक अज्ञान कहते हैं । ज्ञात हो कि भाववती और क्रियावती ये दो शक्तियाँ जीव के साथ अनादिकाल से जुड़ी हुई है। दर्शन, ज्ञान और वीर्यरूप से भाववती शक्ति के तीन रूप हैं। उपयुक्त आकार को प्राप्त ज्ञानरूप यह भाववती शक्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होकर अनादिकाल से मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याज्ञान रूप धारण किये है। पौद्गलिक मन,वचन और काय की अधीनता में क्रियाशील रहने वाली क्रियावती शक्ति चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से प्रभावित होकर मिथ्याचारित्र रूप हो जाती है। जब दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है, तब विकास को प्राप्त वह ज्ञानरूप भाववती शक्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूप परिणत हो जाती है तथा चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का यथायोग्यरूप में जैसे जैसे अभाव होता जाता है वैसे वैसे मन, वचन और काय की अधीनता में क्रियाशील क्रियावतीशक्ति सम्यक्चारित्र रूप परिणत होती जाती है । संसारमार्ग के कारणभूत दर्शनमोहनीय और -570 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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