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आगम संबंधी लेख
जैन धर्म - दर्शन में सम्यग्ज्ञान : स्वरूप और महत्व
प्रो. डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी,
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी जैन धर्म में "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः " अर्थात् सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को एकत्र रूप में मोक्षमार्ग का साधन माना गया है। अत: इन तीनों की समानता मोक्ष प्राप्ति में साधक है। मोक्षमार्ग में इन सभी का भी समान महत्व है। किन्तु इन तीनों में से प्रस्तुत निबंध का प्रतिपाद्य विषय सम्यग्ज्ञान है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
वस्तुतः चैतन्य के प्रधान तीन रूप हैं जानना देखना और अनुभव करना । ज्ञान का इन सभी से सम्बंध है । सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान भी आत्मा का विशेष गुण है जो स्व एवं पर दोनों को जानने में समर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है - जो जाणदि सो णाणं... (प्रवचनसार 35 ) अर्थात् जो जानता है वही ज्ञान है । आ. वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका (पुस्तक 1 पृ. 143) में "भूतार्थ प्रकाशनं ज्ञानम्” अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष ज्ञान है । आचार्य पूज्यपाद ने "जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानं " - अर्थात् जो जानता है वह ज्ञान है (कर्तृसाधन) जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है (करण साधन) अथवा जानना मात्र ज्ञान है (भाव साधन) (सवार्थसिद्धि 1/6)
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आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है "णाणं णरस्स सारो" अर्थात् ज्ञान मनुष्य के लिए सार भूत है, क्योंकि ज्ञान ही हेयोपादेय को जानता है। सम्यग्दर्शनपूर्वक संयम सहित उत्तम ध्यान की साधना जब मोक्ष मार्ग के निमित्त की जाती है, तब लक्ष्य की प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान के महत्व का परिज्ञान होता है। जैसे धनुषविद्या के अभ्यास से रहित पुरुष वाण के सही निशाने को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष ज्ञान की आराधना के बिना मोक्षमार्ग के स्वरूप को नहीं पा सकता। क्योंकि संयम रहित ज्ञान और ज्ञान रहित संयम अकृतार्थ है, अर्थात् ये मोक्ष को सिद्ध नहीं करते ।
आत्मा में अनंतगुण हैं, किन्तु इन अनंत गुणों में एक "ज्ञान" गुण ही ऐसा है, जो "स्व - पर" प्रकाशक है। जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है। उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थो को भी जानता है । इसी से ज्ञानगुण को सविकल्प (साकार) तथा शेष सब गुणों को निर्विकल्प (निराकार ) कहा है । सामान्यत: निर्विकल्प का कथन करना शक्य नहीं है किन्तु ज्ञान ही एक ऐसा गुण है, जिसके द्वारा निर्विकल्प का कथन भी किया जा सकता है। इस तरह यदि ज्ञान गुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नही है। इसीलिए ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। प्रकाश अभाव रूप अंधकार की जो स्थिति है, वही स्थिति अज्ञान की है।
सम्यक् और मिथ्या : ज्ञान के दो रूप -
आत्मा का गुण तो ज्ञान है किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है । संशय, विपर्यय
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