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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भावहिंसा के त्याग की बात कही। वास्तव में वे जीव मात्र के हितैषी थे । यदि जीवों का हित नहीं होगा तो राष्ट्र का भी हित कैसे होगा ? वे कहते हैं
जीव वहो अप्प वहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सव्व जीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामे हिं ॥ जह तेन पियं दुक्खं आणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कु णसु दयं ॥ अर्थात् जीव का वध करना अपना ही वध करना है, जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है अत: सभी जीवों की हिंसा को अपने ही प्रिय की हिंसा समझना चाहिए । जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है अत: सब प्राणियों पर आत्मौपम्य दृष्टि रखकर दयाभाव रखना चाहिए।
जिस तरह जंगल अकेले सुगंधित फूल युक्त पेड़ पौधों का नाम नहीं है अपितु उसमें तीक्ष्ण कांटों वाले पेड़ भी सम्मिलित होते हैं उसी तरह राष्ट्र भी एक जैसे लोगों से नहीं बनता है। यहाँ अच्छे होते हैं तो बुरे भी, धार्मिक होते हैं तो अधार्मिक भी । काम करने वाले होते हैं तो कामचोर भी । इसलिए मैत्री प्रमोद, करूणा और माध्यस्थभाव अपेक्षित है। जैन श्रावक आचार्य अमितगति के सामायिक पाठ को प्रतिदिन पढ़ता है और इन भावनाओं का अनुसरण भी करता है -
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं ।
माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥" अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी और क्लेषयुक्त जीवों के प्रति करूणा (कृपा) भाव तथा प्रतिकूल विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव रखें। हे देव ! मेरी आत्मा सदा ऐसे भाव धारण करे। 'मेरी भावना' में भी पढ़ते हैं कि -
मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे । रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे। दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे । गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे ।
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै॥" श्रावक की सद्भावना राष्ट्र और जन कल्याण की होती है ।उसे राष्ट्र के हित में सर्व और स्वयं का हित दृष्टिगोचर होता है अत: वह भावना भाता है कि -
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