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आगम संबंधी लेख
राष्ट्र कल्याण में श्रावक की भूमिका
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
बुरहानपुर (म.प्र.)
जैन धर्मानुसार व्रतधारियों की दो कोटियाँ हैं - 1. महाव्रती - मुनि, और 2. अणुव्रती श्रावक' । श्रावक वह सदगृहस्थ होता है जो सप्त व्यसनों का त्यागी, अष्टमूलगुणधारी और पंच - अणुव्रतों का पालक होता है । उसका आचरण शास्त्र सम्मत एवं स्वपर हितैषी होता है।
द्यूत (जुआ खेलना, मांस भक्षण, मद्य ( मदिरापान), वैश्यासेवन, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन, ये सात व्यसन हैं। 2
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन "भारती"
मद्य, मांस, मधु का त्याग, और अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणाणुव्रत और ब्रह्मचर्याणुव्रत ये अष्ट मूल गुण है । '
अन्यत्र मद्य - मांस-मधु का त्याग, रात्रि भोजन त्याग, पंच उदुम्बर फलों का त्याग, देव वंदना, जीव दया करना और पानी छान कर पीना आदि को अष्टमूलगुणों में सम्मिलित किया गया है।
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत और ब्रह्मचर्याणुव्रत, ये पाँच अणुव्रत कहे गये है।
सागार धर्मामृत की टीका में आया है कि “श्रृणोति गुर्वादिभ्यो धर्मम् इति श्रावकः "" अर्थात् जो गुरुओं धर्म को सुनता है वह श्रावक है। वह धर्म को सुनता है, धारण करता है और आचरण भी करता है। महाभारत के अनुसार -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥'
अर्थात् धर्म के सार को सुनो और सुनकर धारण (ग्रहण) करो। अपने से प्रतिकूल आचरण (व्यवहार) दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए ।
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श्रावक इस कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करता है। वह धर्म को सुनता है, हित - अहित रूप विवेक से युक्त होता है और क्रियाओं में पाप से विरत होता है ।
श्रावक का जीवन जीने वाला स्वयं का भी उपकार करता है और राष्ट्र का भी हित साधन करता है जिनेन्द्र भगवान की वाणी पर अमल करते हुए चलने वाला श्रावक अपने चारित्र और सत्कार्यो से राष्ट्र को उन्नत बनाता है । 'दर्शनप्राभृत' में कहा है कि -
" जिणवयण मोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||"""
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