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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 3. जीव तथा प्रतिमा का संस्कार और उसका प्रभाव -
जिनेन्द्र प्रतिमा को मंत्रोच्चार पूर्वक साविधि संस्कार करने से अजीव द्रव्य भी इतना प्रभावी और सातिशय बन जाता है। जिसकी सानिध्यता से जीव द्रव्य भी अपना उपकार करने में पूर्ण सक्षम हो जाता है। प्रतिमा दर्शन से स्वात्म परिणामों में विशुद्धि एवं संसार की असारता का बोध जीव को होता है । इसी हेतु की साकारता के लिए तीर्थंकर के काल में भी पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की प्रतिकृति रूप प्रतिमायें निर्मित कर मंत्रोच्चार पूर्वक उनका संस्कार किया जाता रहा है। वास्तु सर्वेक्षण से प्राप्त प्रतीक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।
प्राय: देखा गया है कि व्यक्ति के जीवन की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है। जिनमें से कुछ वह पूर्वभव से अपने साथ लाता है। और कुछ इसी भव में संगति और शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है । इसलिए गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्धि संस्कार उत्पन्न करने के लिए संस्कार क्रिया का भी विधान बताया गया है।
__ गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर श्रावक को जिनेन्द्र पूजन एवं मंत्र संस्कार सहित 53 प्रकार की क्रियाओं का वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित है । इन क्रियाओं की सम्पन्नता से बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए अर्हत दशा तक पहुँचकर निर्वाण सम्पत्ति प्राप्त करने की पात्रता पा लेता है। सिद्धि विनिश्चय ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में लिखा है - ___ "वस्तुस्वभावोयं यत् संस्कार: स्मृति बीज मादधीत" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही संस्कार है और जिसको स्मृति का बीज माना गया है। पंचास्तिकाय ग्रन्थ की ताप्पर्य वृत्ति में पृष्ठ 251 पर लिखा है। निज परम आत्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्मसंस्कार है।आत्म संस्कार ही जीव की कर्म श्रृंखला को निर्मूल करने में साधक है।और यही उसकी चरमोपलब्धि है।
श्री बट्टकेर आचार्य प्रणीत मूलाचार ग्रन्थ में पृष्ठ 286 पर लिखा है कि पठित ज्ञान के संस्कार जीव के साथ जाते हैं ।विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रभाव से विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है। संस्कार रहता है। और क्रम से केवल ज्ञान को प्राप्त कराता है अत: जीव के कल्याण में संस्कार का ही सर्वोपरि महत्व है।
धवला ग्रंथ पुस्तक 1 खण्ड 4 पृष्ठ 82 में भगवंत पुष्पदंत भूतवली स्वामी ने लिखा है कि चार प्रकार की प्रज्ञाओं में जन्मान्तर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनय पूर्वक 12 अंगों का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्य में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने सुनने व पूंछने आदि के व्यापार से रहित जीव की प्रज्ञा औत्पातिकी कहलाती है।
तत्त्वार्थसार ग्रन्थ में जीवाधिकार पृष्ठ 45 में धवला की उपर्युक्त वर्णित कथनी की पुष्टि करते हुए आचार्य भगवन लिखते है "नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है वहाँ पूर्व भव में धारण किये हुए तत्त्वार्थ ज्ञान के संस्कार के बल से सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार आचार्यकल्प टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के पृष्ठ 283 पर लिखते है कि इस भव में अभ्यास कर अगली पर्याय तिर्यंच आदि में भी जाये तो वहाँ संस्कार के बल से देव शास्त्र गुरु के बिना भी सम्यक्त्व हो जाये।"
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