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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन धर्म में मूर्तिपूजा
शिवचरन लाल जैन, मैनपुरी गोम्मटदेवं वंदमि पंचसय धनुसदेह उच्चंतं ।
देवा कुणंति वुट्टी केसर कुसमाण तस्स उवरम्मि ॥ मैं पाँच सौ धनुष की ऊँचाई वाले शरीर को धारण करने वाले गोम्मटदेव बाहुबली की वंदना करता हूँ, जिन पर सर्वदा देव केशर और पुष्पों की वर्षा करते हैं।
प्रास्ताविक - मानव के विकास, भय निवृत्ति एवं अभीष्ट सुख की प्राप्ति के लिए धर्म की महती उपयोगिता है। जैन वाङ्मय में धर्म की विभिन्न परिभाषाएँ मनीषियों ने प्रस्तुत की है। धारण करने योग्य, उत्तम सुख में स्थापित करने वाला, वस्तु स्वभाव रूप, उत्तम क्षमा आदि दस भेद रूप, रत्नत्रय स्वरूप, जीव दया रूप धर्म आदि के द्वारा इसका स्वरूप दृष्टव्य है। जो इस लोक में अभ्युदय सुख-शांति प्रदान करने वाला हो तथा जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो। यह धर्म का लक्षण तो जैन एवं जैनेतर सभी दर्शनों में मान्य है। निर्विवाद रूप से यह सिद्ध है कि मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का मापदण्ड धर्म ही है।
जैन धर्म में दो रूप हमारे समक्ष विद्यमान है - 1. विचार मूलक अथवा दर्शन, 2. आचार मूलक अथवा प्रायोगिक धर्म । एक का संबंध हृदय की शुद्धि करने से है तथा दूसरे का संबंध शरीर एवं वाणी की शुद्धि द्वारा सम्पूर्ण शुद्धि से है। इन दोनों रूपों को सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र में समायोजित किया गया है।
श्रमण एवं श्रावक दोनों ही दृष्टियों से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति एवं स्थैर्य हेतु भक्ति अथवा पूजा प्रधान कारण है। पूजा के पर्यायवाची नाम याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, मह, अर्चना हैं। इनसे पूजा के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। कृति कर्म, चितिकर्म, पूजा कर्म, और विनय कर्म भी इसके नाम हैं। कर्म को काटने वाले होने से कृतिकर्म पुण्य संचय के कारण होने से चिति कर्म, परमेष्ठी की प्रतिष्ठा होने से पूजा कर्म और विनय प्रकाशक होने के कारण विनय कर्म संज्ञा अन्वर्थता को प्राप्त होती है। आराधना, वंदना, भक्ति आदि इनके ही प्रकट रूप हैं । ये मूर्ति के माध्यम से होते हैं। यह मोक्षमार्ग है, इससे भी कषायों की मंदता से भाव विशुद्धि होकर समस्त रागादि विकारों के अभाव से शुद्ध परिणाम प्रकट होते हैं। आत्महित प्रयोजनरूप वीतरागता प्रकट होती है।
मूर्तिपूजा आत्मोन्मुखी क्रिया है जो चैतन्य की ओर ले लाती है। जो जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों को परम भक्ति के राग से प्रणाम करते हैं वे जन्म मरण रूपी बेल के मूल मिथ्यात्व को श्रेष्ठ भाव रूपी शस्त्र से खोद डालते है। वर्तमान में साक्षात जिनेन्द्र भगवान विद्यमान नहीं है, अत: उनकी प्रतिमा में संकल्प कर उनकी पूजा संभावित है।
मूर्तिपूजा का महत्व - मूर्तिपूजा व्यवहार पूजा है। जो परमपद में, शुद्ध ध्यान में स्थित हैं या होने की स्थिति में हैं उनके लिए मूर्तिपूजा का प्रयोजन नहीं है। साथ ही वे समस्त बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का
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