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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्थापना से धर्मप्रभावना आदि के आख्यान वर्णित किये गये हैं। अन्य भी पुराण पारमार्थिक सुख की प्राप्ति के वृत्तान्त मानव मन पर प्रभाव डालते है । वह अपनी जीवन शैली, चर्या को निर्मल बना कर सामाजिक व वैश्विक वातावरण को स्वच्छ बनाने में पूरक बनता है।
वर्तमान इतिहास पर दृष्टि पात करने से विदित होता है कि अनेकों राजाओं एवं महापुरुषों ने मूर्तिपूजा के माध्यम से जैन धर्म की महती प्रभावना की है। सम्राट अशोक द्वारा श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर मंदिर एवं अतिशय विराट प्रतिमा की स्थापना, सम्राट खारवेल द्वारा कलिंग जिन की प्रतिष्ठा, वस्तुपाल, तेजपाल द्वारा आबू पर्वत पर श्रेष्ठ मंदिर एवं मूर्तियों की प्रतिस्थिति, एलोरा आदि गुफाओं की श्रेष्ठ वास्तुकला आदि अनेकों प्रमाण दिग्दिगन्त में जैन धर्म की यशोपताका फहरा रहे हैं।
विदेशों में भी वर्तमान में मंदिरों के निर्माण एवं मूर्तिपूजा से विश्व में जैन धर्म का प्रभाव वृद्धिंगत हो रहा है। मोहन जोदड़ों व हड़प्पा से प्राप्त मूर्तियाँ तथा मथुरा कला की प्राचीन मूर्तियाँ भारत एवं विश्व के अन्य देशों के संग्रहालयों की धरोहर बनी हुई हैं। यदि धार्मिक दृष्टि से व मूर्ति को केन्द्र मानकर पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया जाये तो निश्चित ही सर्वाधिक मूर्तियाँ जैन धर्म के तीर्थकरों, देवी देवताओं की प्राप्त होंगी।
"आलेख का उपसंहार करते हुए सारांश रूप में जैन धर्म में मूर्तिपूजा विषयक ध्यान देने योग्य निम्न बिन्दुओं को प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं - 1. अनेकों चिंता - क्लेश पूर्ण द्वन्दों से पीड़ित एवं विषय - कषायों में आसक्त मन में रूपातीत ध्यान
जैसी निरालम्ब पूजा की सामर्थ्य का सद्भाव स्थविरकल्पी साधुवर्ग, गृहाश्रमियों में तो अवश्य ही
नहीं, अत: आलम्बन रूप मूर्तिपूजा ही शरण है। 2. मूर्तिपूजा की अनेक विधियाँ व रूप जैनागम में स्वीकृत है, हमें द्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव अनुसार
यथायोग्य स्वीकार कर भाव शुद्धि की ओर ध्यान देना चाहिए । पक्षाग्रह उचित नहीं है। 3. मूर्ति और मूर्तिपूजा संगठन एवं धर्म प्रभावना का एक सशक्त माध्यम है। 4. न्यायशास्त्र के अनुसार तीन प्रमाण हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. आगम । तीनों से ही मूर्तिपूजा सिद्ध
है, उसका श्रेष्ठ अभिप्राय है। प्राचीन मंदिरों एवं मूर्तियों की सुरक्षा, जीर्णोद्धार पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अति अनिवार्यता में ही नया निर्माण अपेक्षित है। तदाकार स्थापना के द्वारा मूर्ति में संकल्प से स्वीकृत देव की यथोचित पूजा - विनय में भी वर्तमान परिस्थितियों में जो न्यूनता आ रही है, उसके निवारण के प्रति ध्यान देना योग्य है । ग्रंथों, पत्र, पत्रिकाओं में पंचपरमेष्ठियों के चित्रों के आधिक्य से अविनय का प्रसंग उपस्थित है, अत: चित्र प्रकाशन के अतिरेक से बचना योग्य है। मंदिर व प्रतिमा की स्थापना व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि के प्रसंग में यह सावधानी योग्य है कि बाह्य अनावश्यक या कम आवश्यक प्रकरण कहीं धर्म के मूल विधि विधान के स्वरूप को ही न निगल जावे। क्रिया विधि की शुद्धि पर विशेष ध्यान दिया जाये ताकि प्रतिमा का अतिशय प्रभाव स्थापित रहे।
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