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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपरोक्त प्रकार जैन धर्म में पूजा एवं मूर्तिपूजा को बहुत महत्व दिया गया है। पौद्गलिक आकार से रहित ध्रुव, अचल, इन्द्रियों से अगम्य सिद्ध परमेष्ठी की मूर्ति का भी विधान यह प्रकट करता है कि मूर्तिपूजा मोक्षमार्ग में व सांसारिक सुख-शांति - अभ्युदय हेतु कारण है। भले ही वह किसी रूप में हो । द्रव्य - पूजा, भाव-पूजा, गुण स्मरण, अभिषेक, वैयावृत्य, सेवा किसी भी रूप में अर्चना कार्यकारी है। श्रावकों को तो अनिवार्य रूप से मूर्तिपूजा कर्त्तव्य कहा गया है। जैन दर्शन में सभी द्रव्यों के प्रदेशत्व नामक गुण का अस्तित्व निरूपित किया गया है। उसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है। सिद्ध परमात्मा के भी पूर्व शरीर के प्रमाण किंचित न्यून आकार होता है। इसको दृष्टि में रखें तो प्रकट है कि निराकार विशेषण से युक्त कोई भक्ति नहीं है, मूर्ति का प्रसंग तो वहाँ भी उपस्थित होगा ही। हाँ पौद्गलिक आकार न होने से कथंचित सिद्ध परमेष्ठी को निराकार भी कहना सम्मत है।
जैन शास्त्रों एवं पुराणों में चैत्य - चैत्यालयों का वर्णन :-जहाँ चैत्य विराजमान हो उसे चैत्यालय या मंदिर जी कहते है। मूर्ति की भाँति इसकी तथा इसके मध्य वेदिकाओं तथा शिखरों की प्रतिष्ठा भी अपेक्षित है। चैत्यालय दो प्रकार के होते हैं - 1. अकृत्रिम, अनादि निधन, 2. कृत्रिम । समस्त लोक में असंख्यात अकृत्रिम चैत्यालय हैं। ये विभिन्न स्थलों, पर्वतों, विमानों,भवनों वनों में हैं। नन्दीश्वर आदि द्वीपों में चैत्यालय व प्रतिमाएँ महर्द्धिक देवों के द्वारा पूज्य होने के कारण विशेष प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं। इन चैत्यालयों में प्रत्येक में 108 प्रतिमाएँ हैं, जिनकी अवगाहना 500 धनुष की है। अति सुंदर वैराग्य मुद्रा, प्रसन्न मुद्रा के ये जिनविम्ब सम्यग्दर्शन के लिए प्रधान कारण हैं।
कृत्रिम जिन मंदिरों के दर्शन का सौभाग्य वर्तमान में भी हमें प्राप्त है। विभिन्न छोटी बड़ी अवगाहना की आकर्षक, मनोहारी जिनप्रतिमाएँ इनमें विराजमान हैं । उदाहरणार्थ श्रवणबेलगोला के अतिशय रम्य, शिल्पी के भाव एवं उपकरणों से पूज्य रूप को प्राप्त हुई 57 फुट उत्तुंग भगवान बाहुबली की मूर्ति विश्व के आश्चर्यों में परिगणित की जाती है। अभी अद्यतन ही 8 फरवरी से 19 फरवरी, 2006 की अवधि में उनका द्वादश वर्षीय भव्य महामस्तकाभिषेक समारोह बड़े ही उत्साह से राजकीय, जैन समाज व जैनेतर समाज द्वारा सम्पन्न किया गया है। इस महापूजा से अपराधवृत्ति कम होकर जीवन मूल्यों में सुधार आने तथा विश्व शांति की कामना की गई है। इसी प्रकार बावनगजा के भ. आदिनाथ, कुण्डलपुर (दमोह) के बड़े बाबा, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, कारकल वेणूर, धर्मस्थल, फीरोजाबाद के भगवान बाहुवलि प्रसिद्ध हैं। श्री महावीर जी के भ. महावीर, पद्मपुरा के भ. पद्मप्रभ स्वामी तथा तिजारा के चन्द्रप्रभ, अहिच्छत्र पार्श्वनाथ आदि के अनेक अतिशयों - चमत्कारों, लोकोपकारों के साथ पूज्यता के प्रमाण हैं। वर्तमान में अष्टधातु एवं पीतल की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं, इसमें अमरकण्टक, सागर, सोनागिरि, कन्नौज आदि की प्रतिमाएँ सम्मिलित हैं। सिद्ध क्षेत्रों, कल्याणक क्षेत्रों तथा अतिशय क्षेत्रों आदि तीर्थों में लाखों की संख्या में जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं इन प्रतिमाओं की पूजा से मानव अपने अंतरंग विकारों पर विजय प्राप्त करके भाव विशुद्धि करता है। प्राचीन से लेकर वर्तमान तक स्थापत्य एवं वास्तु कला के विधि श्रेष्ठ सुंदर आयामों के विहंगम रूप प्राचीन धरोहर के रूप में इतिहास के गवाह बने हुए हैं। भारत में अब से लगभग 400 वर्ष पूर्व
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