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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ यदि किसी प्रबुद्ध मानव के जीवन में सिद्धांत या दार्शनिक तत्व को अपनाने में विवाद उपस्थित हो जाये तो पूज्य वर्णी जी के समान आध्यात्मिक न्यायलय के युक्तिपूर्ण सिद्धांत को अंगीकृत कर लेना चाहिए।
__ आध्यत्मिक विचारधारा :- विक्रम सं. 962 में अध्यात्मवेत्ता श्री अमृतचंद्र आचार्य ने जिन "प्रवचन रहस्य कोष" ग्रन्थ में आत्मतत्व की जो व्याख्या की है उस तत्व पर न्यायाचार्य जी ने अपने विचार स्थिर किये और उस पर गंभीर चिंतन किया । आत्मतत्व की व्याख्या -
अस्तिपुरुषश्चिदात्मा, विवर्जित: स्पर्शगन्धरसवर्णैः ।
गुण पर्ययसमवेत: समाहित: समुदयव्यय ध्रौव्यैः ॥ (जिनप्रवचन रहस्यकोष पद्य-9) तात्पर्य - निश्चयनय से आत्मा चैतन्य (ज्ञानदर्शनादि) स्वरूप एवं स्पर्शरसगंधवर्ण से रहित अमूर्तिक है। व्यवहारनय से आत्मा गुण एवं पर्याय से सम्पन्न और उत्पाद-व्यय तथा नित्यत्व से सहित है।
एक दूसरे ग्रन्थ के प्रमाण से श्री वर्णी जी ने स्वकीय आध्यात्मिक विचारधारा को विकसित किया, जो प्रमाण इस प्रकार है -
अहंप्रत्ययवेद्यत्वात्, जीवसयास्तित्वमन्वयात् । एकोदरिद्र एको हि, श्रीमानिति च कर्मणा: ॥
(कविवर महापण्डित राजमल्ल: पंचाध्यायी: द्वि.अ. : पद्य 50) तात्पर्य - अहंप्रत्यय (मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव) होने से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है और एक पुरुष दरिद्र है, एक श्रीमान् है, एक पुरुष सुखी है, एक पुरुष दुखी है, इस प्रकार के अनुभव से कर्म सिद्धांत का अस्तित्व जाना जाता है । इस श्लोक को श्री वर्णी जी अपने प्रवचनों में तथा भाषणों में समयसमय पर कहा करते थे। जिससे समाज, आत्मा एवं कर्म सिद्धांत से प्रभावित होती थी। उनके मुख से इस पद्य को हमने अनेक बार प्रत्यक्ष सुना है यह उनकी आत्मिक श्रद्धा है।
___ यदि मानव को मानस पटल में कभी यह विभ्रम दर्शनमोह के प्रभाव से हो जाये कि आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ! भौतिक पदार्थो से आत्मा की सृष्टि होती है या नहीं ! शरीर ही आत्मा है ! इस प्रकार की श्रद्धा न होने पर उस व्यक्ति को वर्णी जी की इस आध्यात्मिक विचारधारा का अनुशीलन करना चाहिए। इससे उसकी श्रद्धा आत्मा पर सुदृढ़ हो जायेगी।
__ परमात्मा की समुपासना :-प्रबुद्ध न्यायाचार्य जी के अंत:करण में यह प्रश्न उदित हुआ कि किस देव की उपासना करना उपयोगी है। इस प्रश्न के समाधान के लिए आपने दर्शन न्याय और सिद्धांत शास्त्रों का अध्ययन किया और अपने प्रश्न का समाधान खोज लिया।
भववीजांकुरजलदा:, रागाद्या: क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । जगत् बीज रूपी अंकुर को पुष्ट करने वाले मेघ के समान राग, द्वेष, मोह, माया, तृष्णा आदि दोष जिसके क्षय को प्राप्त हो गये हो, ऐसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बुद्ध और जिनके नाम से प्रसिद्ध उस आप्त (परमात्मा) को हम प्रणाम करते हैं अथवा
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