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कृतित्व / हिन्दी
व्यक्तित्व के सागर - वर्णी जी
किसी भी संत या महात्मा की जन्म जयंती को उदीयमान करने का मुख्य प्रयोजन है कि महात्मा के गुण का स्मरण एवं उनके आचरण जैसा आचरण करना और उन महात्मा के समान कल्याणमार्ग का मार्गण करना | हिन्दी कवि की नैतिक उक्ति है.
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हमें महापुरुषों के जीवन ये ही बात बताते हैं । जो करते हैं सतत आचरण वे महान बन जाते हैं |
वर्तमान में हम सब न्यायाचार्य, पूज्य, अध्यात्मवेत्ता पं. श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी महात्मा की 120 वीं जन्म जयंती के परिप्रेक्ष्य में उल्लास के साथ उनके गुणगण का स्मरण और उनके पवित्र आचरण जैसा स्वयं आचरण करते हुए अपने जीवन को भी महान उज्ज्वल करने का पुरुषार्थ कर रहे हैं।
आदर्श जीवनकाल :
उन वर्णी महाभाग का सम्पूर्ण जीवन अठासी वर्ष प्रमाण था जिसमें 42 वर्ष प्रमाण छात्र जीवन, 40 वर्ष प्रमाण त्यागवृत्ति, आत्मसाधना और धर्मप्रभावना से ओतप्रोत जीवन व्यतीत हुआ। छह वर्षीय बाल्यकाल पूर्व सुसंस्कारों और गुणीजनों की संगति में व्यतीत हुआ ।
यदि किसी मानव का जीवन शुष्क वृक्ष के समान निरर्थक चल रहा हो तो उस मानव को वर्णी जी का आदर्श जीवन देखकर अपने जीवन को शीघ्र परिवर्तित कर देना ही चाहिए, यह प्रेरणा प्राप्त होती है - श्रीवर्णी जी के जीवन से ।
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सिद्धांत परीक्षा :
श्री वर्णी जी के अंतस्तल में यह विकल्प चल रहा था कि किस दर्शन एवं सिद्धांत को अंगीकृत करना चाहिए | विचार करते-करते वर्णी जी को एक न्यायपूर्ण आध्यात्मिक न्यायालय का निर्णय मिल गया जिसको प्राप्त कर वे अति प्रसन्न हुए । निर्णय ज्ञातव्य है :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष : कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह | (हरिभद्रसूरि )
तात्पर्य - हरिभद्रसूरि कहते हैं कि हमारा, महावीर में कोई पक्षपात नहीं और न कपिल आदि ऋषियों द्वेष है। परन्तु युक्ति, प्रमाण और न्यायपूर्ण जिसके वचन सिद्ध हो, उनको स्वीकृत कर लेना चाहिए । अष्टादश दोष रहित उस आप्त के वचन ही निर्दोष युक्तिपूर्ण और न्यायपूर्ण सिद्ध हो सकते है। कारण कि यह नीति विज्ञान पूर्णलोक में प्रसिद्ध है कि वक्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता सिद्ध होती है ।
इस न्यायालय के परीक्षा प्रधान निर्णय से न्यायाचार्य जी ने अपनी श्रद्धा को यथार्थ सर्वज्ञ, निर्दोष, हितोपदेशी आप्त द्वारा प्रणीत अहिंसा, अपरिग्रहवाद, स्यादवाद (अनेकांतवाद ) अध्यात्मवाद, कर्मवाद और मुक्तिवाद में सुदृढ़ करने का आदर्श उपस्थित किया ।
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