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कृतित्व / हिन्दी
परम्परा सिद्ध होती है यह स्यादवाद यन्त्र से सिद्ध होती है तथाहि
एकेनाकर्षन्ती, श्लथयन्ती वस्तु तत्त्व मितरेण । अन्तेन जयति जैनी, नीति: मन्थान नेत्र मित्र गोपी ॥
(आ. अमृतचन्द्रः पुरूषार्थ सिद्धयुपाप: पद्य 225) भाव सौन्दर्य - जिस प्रकार दही को मथने वाली ग्वालिन मथानी की रस्सी को एक हाथ से खींचती और दूसरे हाथ को ढीली कर देती है और दोनों की प्रक्रिया से दही से मक्खन का आविष्कार करती है, उसी प्रकार जिनवाणी रूप ग्वालिन द्रव्यार्थिकनय से वस्तु तत्त्व को मुख्य करती और पर्यायार्थिकनय से दूसरे तत्त्व वस्तु तत्त्व का सार ग्रहण करती है ऐसा स्यादवाद यंत्र लोक में विजयशील हो ।
आदरणीय डॉ. पन्नालाल जी ने आचार्यों की इसी नीति का अनुकरण किया था । रूपकालंकारकाचमत्कार
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
श्री साहित्याचार्य जी के स्वानुभव ने स्यादवादरूप मन्थन दण्डको, नयरूप रस्सी से, संस्कृत साहित्य सागर का गंभीरता के साथ मन्थन कर उस सागर में से तीन आध्यात्मिक मणियों का अन्वेषण कर आत्मा को अलंकृत किया । प्रथममणि सम्यक्त्वचिन्तामणि, द्विमणि- सत्ज्ञानचन्द्रिका, तृतीय मणि - सम्यक्चारित्र चूड़ामणि । सत्ज्ञानचन्द्रिका का द्वितीय नाम- सम्यक् ज्ञान चिन्तामणि है ।
(1) सम्यक्त्व चिन्तामणि की चमत्कृति
सम्यक् दृष्टिरयं तावद बद्धायुष्क बन्धनः । तिरश्चां नारकाणां च, योनिं दुष्कर्मसाधिताम् ॥ १५९ ॥ क्लीबत्वं ललनात्वं वा, दुष्कुलत्वं च दुःस्थितिम् । अल्पजीवित वत्त्वं च भवनत्रिक वासिताम् ॥१६०|| दारिद्रयं विकलांगत्वं, कुक्षेत्रं च कुकालकम् । प्रतिष्ठा श्रय वत्त्वं च प्राप्नोत्येव न जातुचित् ॥१६१॥
तात्पर्य - जिसने आयु का बंध नहीं किया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव दूसरे भव में पापोदय से प्राप्त तिर्यचगति, नरकगति, नपुंसकवेद, स्त्री वेद, नीचकुल, कष्टमयजीवन, अल्पायु, भवनवासि, व्यन्तर ज्योतिष देवों में जन्म, दरिद्रता, विकलांगता, कुक्षेत्र, दुष्काल में जन्म को एवं सप्त भय सहित जीवन और मान हानि को प्राप्त नहीं होते है यह सब सम्यग्दर्शन का महत्व है वह सदैव अच्छी पर्यायों को प्राप्त करता है । आगे श्लोकों का तात्पर्य है कि ज्ञान और चारित्र से सम्यग्दर्शन ही प्रबल कहा गया है क्योंकि वह मोक्षमार्ग में कर्णधार या ड्राईवर के समान है जो मुक्तिनगरी को जाता है। सम्यक् दर्शन हृदय की वह रसायन है जो पुण्यात्मा पुरुष को स्वस्थ्य कर सर्वकल्याण का पात्र करती है । मिथ्यात्व गुण स्थानवर्ती मुनि के भी एक प्रकृति का भी संवर नहीं है, जब कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती गृहस्थ के इकतालीस प्रकृतियों का संवर हो जाता है यह करणानुयोग सम्यग्दर्शन का प्रभाव है। तीन लोक और तीनकाल में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन चिन्तामणि के समान हितकारी है।
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