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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वह सर्वव्यापक कैसे होगा । यह विरोध है, पर उसका परिहार यह है - कि पुराणपुरुष (भ0 आदिनाथ आत्म - प्रदेशों की अपेक्षा अपने स्वरूप में ही स्थित हैं पर उनका ज्ञान सर्वलोक के पदार्थो को जानता है, इसलिये ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत (व्यापक) है। जो सम्पूर्ण व्यापारों का जाननेवाला है वह परिग्रहरहित कैसे हो सकता है, यह विरोध है, उसका परिहार है कि आप सर्व पदार्थो के स्वाभाविक अथवा वैभाविक परिवर्तनों को जानते हुए भी कर्मो के सम्बन्ध से रहित हैं। इसी तरह दीर्घायु से सहित होकर भी बुढ़ापे से रहित हैं, यह विरोध है, उसका परिहार यह है - महापुरुषों के शरीर में वृद्धावस्था का विकार नहीं होता अथवा आत्मस्वरूप की शुद्धता की अपेक्षा से कभी भी जीर्ण (वृद्ध) नहीं होते।इस प्रकार के श्री आदिनाथ भगवान इस लोक में विघ्न बाधाओं से हम सबकी रक्षा करें। यह प्रार्थना की गई। इस पद्य में विरोधाभास अलंकार तीन प्रकार में दर्शाया गया है। इसी स्तोत्र के पद्य नं. 13 का चित्र-आकर्षक-भाव सौन्दर्य इस प्रकार है -
सुखाय दुःखानिगुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति ।
तैलाय बाला: सिकतासमूह, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया: ।। अन्वयार्थ - जिस प्रकार (बाला) बालक या मूर्ख, (तैलाय)तैल के लिये (सिकतासमूह)बालु के समूह को (निपीडयन्ति )पेलते हैं। (स्फुटं) स्पष्ट रूप से उसी प्रकार (अत्वदीयाः) आपके प्रतिकूल चलने वाले पुरुष (सुखाय) सुख के लिये,(दुःखानि)दुःखों को, (गुणाय) गुण के लिये, (दोषान्) दोषों को और (धर्माय)धर्म पालन के लिये, (पापानि) पापकर्मों को (समाचरन्ति)आचरण में लाते है।
(5) जिन चतुर्विशतिका स्तोत्र श्री भूपाल कवि द्वारा प्रणीत है इसमें छब्बीस पद्य विविध छन्दों में निबद्ध हैं, चौबीस तीर्थकरों की स्तुति होने से यह स्तवन काव्य है। कविवर साहित्य के उच्च कोटि के विद्वान् थे। इसलिये इस स्तोत्र में विविध रुचिर छन्द, अलंकार, गुण, रस और काव्य की रीतियों का सुन्दर समावेश चित्त को आकर्षित करता है। उदाहरणार्थ द्वितीय पद्य प्रस्तुत किया जाता है -
शान्तं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं, सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः ।
संसार मारव महास्थल रुद्र सान्द्रच्छायामहीरुह ! भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥2॥
अन्वयार्थ - (देव:) हे जिनेन्द्र देव ! (तव) आपका (वपुः) शरीर (शान्तं) शान्त है (वचः) वचन (श्रवणहारि) कानों को प्रिय हैं और (चरित्र) चारित्र अथवा आचरण, (सर्वोपकारि) सबका भला करने वाला है । (तत:) इसलिए (संसार मारव महा स्थल रुद्र सान्द्रच्छाया महीरुह !) हे संसाररूप मरुस्थल में विस्तृत सघन छाया वृक्ष ! (श्रुतज्ञाः) शास्त्रों के जानने वाले विद्वान् पुरुष, (भवन्तं उपाश्रयन्ते) आपका आश्रय लेते हैं।
भावार्थ - मरुस्थल प्रदेशों में छायावाले वृक्ष बहुत कम होते हैं इसलिए मार्ग में रास्तागीरों को बहुत तकलीफ होती है। वे थके हुए रास्तागीर जब किसी छायादार वृक्ष को पाते हैं तब बड़े खुश होते हैं और उसकी सघन शीतल छाया में बैठकर अपना सब परिश्रम भूल जाते हैं। इसी तरह संसाररूप मरुस्थल में आप जैसे शीतल छायादार वृक्षों की बहुत कमी है, इसलिए मोक्षनगर को जाने वाले पथिक रास्ते में बहुत तकलीफ
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