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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जाते हैं, ग्रहण किये जाते है, भेजे जाते है, लिखे जाते हैं, जिससे शब्दों का जड़पना और मूर्तित्व सिद्ध होता है। कारण कि मूर्तिक जड़ यंत्र अपने सजातीय मूर्तिक जड़ को ही पकड़ सकते हैं। अमूर्तिक सूक्ष्म तत्वों को नहीं। जैनदर्शन में पृथ्वी, जल,वायु, अग्नि और वनस्पति को पृथक् मूल द्रव्य नहीं माने गये हैं किन्तु पुद्गल द्रव्य की ही हालत रूप माने गये हैं तो परिवर्तित होते रहते है।
विज्ञान ने हाईड्रोजन और आक्सीजन नामक वायुओं का उचित मात्रा में मेल कर जल बनाया और जल का पृथक्करण करके हवाओं को बना दिया, जल को भाप बनाकर अनेक पदार्थो के आविष्कार किये । जल आदि वस्तुओं के संयोग से बिजली का आविष्कार किया। इसी प्रकार पृथ्वी के परमाणुओं से जल और वायु को बना दिया ।कपूर, पिपरमेन्ट तथा अजवान के फूल के संयोग से अमृत धारा नामक तरल पदार्थ बन जाता है। इन प्रयोगों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी जलादि मूलद्रव्य पृथक् सिद्ध नहीं हैं किन्तु पुद्गल नामक एक मूल द्रव्य की ही अवस्था विशेष है।
जैनदर्शन में जीव और अजीव ये दो मूलद्रव्य कहे गये हैं उनमें अजीव द्रव्य के पाँच प्रकार हैं-1. पुद्गल, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश, 5. काल । इस प्रकार भेद दृष्टि से विश्व में कुछ छह द्रव्य विद्यमान है।
वैज्ञानिकों ने भी छह द्रव्यों की सत्ता को मान्यता दी है - 1. आत्मा (Soul), 2.पुद्गल (Matter & Energy) 3. धर्मद्रव्य (Eather), 4.अधर्म द्रव्य (Non eather), 5. आकाश (Space), 6. काल (ime Substance) | इनमें से आत्मद्रव्य की वैज्ञानिक मान्यता का वर्णन पहले हो चुका है। जैनदर्शन में पुद्गल की व्याख्या - जिसमें उष्ण आदि आठ स्पर्श, मधुर आदि 5 रस, दो गंध, काला आदि 5 वर्ण ये गुण यथासंभव जिसमें पाये जावें वह पुद्गल है अथवा जिसमें संयोग वियोग रूप क्रिया होती रहे वह पुद्गल है।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि एक स्कंध (परमाणुओं का समूह), दूसरे स्कंध या परमाणु समूह से मिल सकता है और पृथक् भी हो सकता है । चाहे वह स्निग्ध या रूक्ष गुण वाला क्यों न हो । संयोग होने पर अधिक शक्ति युक्त परमाणु, अल्पशक्तियुक्त परमाणुओं पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। इस क्रिया के होने पर अनेक नवीन वस्तुओं की रचना हो जाती है और पहले की हालत का विनाश हो जाता है इस प्रकार पुद्गल में सदैव परिवर्तन होता रहता है।
"ईशा की 19 वीं सदी तक वैज्ञानिकों का मत था कि तत्व अपरिवर्तनीय हैं, एक तत्व दूसरे तत्व में परिवर्तित नहीं हो सकता । किन्तु अब तेजोद्गरण आदि के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो गया है कि तत्व परिवर्तित भी हो सकता है।" (दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य पृ.4)
रेडियो, वेतार का तार,टेलीविजन आदि के आविष्कार में हजारों मील दूर तक शब्दों के आने जाने में माध्यम रूप से एक अदृश्य सर्वव्यापक तत्व की कल्पना करनी पड़ी है जिसको ईथर नाम वैज्ञानिकों ने दिया हैं और शब्दों के ठहरने में या अंकित करने में माध्यम रूप से 'नॉन ईथर' तत्व की कल्पना करनी पड़ी। जिसको जैन दर्शन में क्रमश: धर्म, अधर्म द्रव्य कहा गया है।
जैनदर्शन में पानी को जलकायिक नाम का स्थावर जीव कहा गया है उसमें सदैव असंख त्रस (चर
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