________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यह योग शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का माना गया है। इनकी परिभाषा लिखते हुए आचार्यो ने कहा है कि शुभ परिणामनिर्वृतो योगः शुभयोग: और अशुभ परिणामनिर्वृतो योग: अशुभयोग: अर्थात् शुभ परिणामों से रचा हुआ योग शुभयोग है और अशुभ परिणामों से रचा हुआ योग अशुभयोग है। मात्र मन वचन काय की शुभ अशुभ प्रवृत्तियों से योगों में शुभ अशुभपना नहीं आता है और न पुण्य पाप प्रकृतियों के बन्ध से ही योगों में शुभ अशुभ का व्यवहार होता है क्योंकि दशमगुणस्थान में बंधनेवाली सत्रह प्रकृतियों में पाँच ज्ञानावरण की, पाँच अन्तराय की और चार दर्शनावरणी की ये चौदह घातिया कर्मो की प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं । शुभयोग से पुण्यकर्म का अशुभयोग से पाप कर्म का आस्रव होता है यह सामान्य कथन है। इस योग के साथ जब कषाय का रंग रहता है तब वह साम्परायिक आस्रव का कारण होता है । साम्पराय का अर्थ संसार है जिस आस्रव का फल साम्पराय है वह साम्परायिक आस्रव कहलाता है । यह सांपरायिक आस्रव प्रारम्भ से लेकर दशम गुणस्थान तक होता है। ईर्या पथ आस्रव कषाय रहित जीवों के होता है । यह ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक होता है। ईर्यापथ आस्रव के बाद स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता।
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्टिदिकारणं णत्थि ॥ योग के निमित्त से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं । अपरिणत उपशान्त दशा और उच्छिन्न-क्षीणदशा में स्थिति बन्ध के कारण नहीं है।
जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी औषध, विषय सुख का विरेचन करने वाली है अत: उसका स्वाध्याय कर, ज्ञानको परिपक्व बनाना चाहिये और चरित्र धारणकर उसे सफल करना चाहिये। क्योंकि चारित्रहीन ज्ञान कागज का गुलदस्ता है जिसमें गन्ध का नाम भी नहीं है । सम्यग्दर्शन से मोक्षमार्ग शुरू हो जाता है और सम्यक्चारित्र से उसकी पूर्णता होती है। सम्यक्चारित्र संवर निर्जरा और मोक्षका कारण है।
मनुष्य बड़े-बड़े मनसूबे बनाता है - 'मैं यह करूँगा, वह करूँगा' इन्हीं संकल्पों के जाल में फँसा हुआ एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। 'तृणं लुनाति दात्रेण सुमेरूं याति चेतसा कोई मनुष्य हँसिया से घास काटता है पर चित्त से सुमेरू पर चढ़ता है । अर्थात् परिस्थिति तो साधारण होती है पर संकल्प विकल्प ऐसे करता है जिनकी पूर्ति होना जीवन में कठिन होता है।
आसव और बन्ध तत्त्व के निर्धार में बड़े-बड़े ज्ञानी जीव चूक जाते हैं। जिन भावों से होता तो आस्रव और बन्ध है उन भावों को यह जीव संवर और निर्जरा का कारण मान बैठता है। पर स्वयं मान बैठने से आस्रव और बन्ध रूकते नहीं हैं। अत: इन भावों का निर्धार ठीक-ठीक करना चाहिये ।
368
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org