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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मुनियों की अलौकिक वृत्ति अनुसरतां पदमेतत्करम्विताचार नित्यनिरभिमुखा ।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्ति: ॥ पुरूषार्थ सिद्धयुपाय के इस प्रकरण पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य ने कहा कि इस संसार सागर से पार होने के लिये मुनियों की वृत्ति धारण करना अत्यन्त आवश्यक है। मुनियों की यह वृत्ति समस्त पापाचारों से परांगमुख रहती है। जिन्हें यह वृत्ति प्राप्त हो गई वे नियम से मोक्षगामी होते हैं। आगम में लिखा है कि भावलिंग मुनिपद अधिक से अधिक बत्तीस बार धारण करना पड़ता है इसके भीतर ही यह जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है। परन्तु द्रव्य लिंगी मुनियों के पद की कोई संख्या आगम में नहीं बताई गई है। उनके लिये तो लिखा है कि यह जीव अनन्त बार मुनि पद धारण कर नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है। परन्तु संसार पार नहीं हो पाता । प्रत्येक मानव को इसका लक्ष्य रखना चाहिये कि हमारे जीवन में वह अवसर कब आवे, जब मैं भावलिंगी मुनि बन कर संसार सागर से पार होने का प्रयत्न करूँगा। द्रव्य लिंगी और भाव लिंगी की पहिचान करना साधारण मनुष्यों की शक्ति से बाहर है क्योंकि द्रव्य लिंगी मुनि भी चरणानुयोग के अनुसार अट्ठाईस मूल गुणों का निर्दोष पालन करता है, यहीं नहीं शुक्ल लेश्या का धारक भी हो सकता है, तभी तो नौवें ग्रैवेयक 31 सागर की आयु का बंध करता है। चरणानुयोग का अपलाप करने वाले पाखण्डी मुनि, भाव लिंगी मुनि नहीं कहलाते, और न वे देवायुका ही बन्ध करते है ऐसे जीव तो सीधे निगोद के पात्र होते हैं।
अमृतचन्द्र स्वामी ने लिखा है कि वक्ता को चाहिये कि वह शिष्य के लिये सर्व प्रथम मुनि धर्म का ही उपदेश देवे ।पश्चात् जब वह मुनि धर्म धारण करने में असमर्थता बतलावें तब गृहस्थ धर्म का उपदेश देवे। जो वक्ता मुनि धर्म का उपदेश न देकर पहले से ही गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है उसे जिनागम में निग्रहदण्ड का पात्र बताया गया है। उसका कारण यह है कि जो शिष्य मुनि धर्म का उपदेश सुनकर मुनि बन सकता था वह पहले ही गृहस्थ धर्म का उपदेश सुनकर उसी से संतुष्ट रह जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। इस तरह वह दुर्बुद्धि वक्ता के द्वारा ठगा जाता है।
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