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कृतित्व / हिन्दी
जैनधर्म में भक्तिमार्ग
किसी भी व्यक्ति को असत्यविचारों के विवाद और संदेह के झूले में झूलने की आवश्यकता नहीं है किन्तु उसे शुद्ध हृदय में निम्नलिखित श्री नेमिचन्द्र आचार्य की वाणी पर विचार करना चाहिए । ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि । आदा पिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥१॥
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
अर्थात् - स्वाभाविक दृष्टि से यह आत्मा शुद्ध ज्ञान दर्शन, सुख, शक्ति आदि अपने अक्षय गुणों में मग्न रहता है उसे बाहरी विकार, मोह द्वेष, माया, क्रोध आदि दूषित कर क्षणिक सुख एवं दुख के जाल में फसा नहीं सकते हैं।
व्यापार कृषि भोजन आदि अनेकों गृह कर्मों से उत्पन्न दोष या भ्रष्टाचार आदि पापों को दूर करने के लिए मानव को परमात्मा की भक्ति, पूजन आदि करना आवश्यक है ।
गृहस्थाश्रम के अशांत वातावरण से व्याकुल हुए गृहस्थ को शांत वातावरण का निर्माण करने के लिए मंदिर आदि एकांत स्थानों में जाकर परमात्मा गुरु एवं धर्म की उपासना (भक्ति), दर्शन आदि करने की अति आवश्यकता है।
गृहस्थाश्रम के द्रव्य-क्षेत्र काल एवं परिस्थितियाँ सदैव मानव को अशांति एवं हिंसा आदि पाप और क्रोधादि कषायें उत्पन्न करती रहती है अतः सुयोग्य हितकारी द्रव्य, क्षेत्र काल एवं दशा का निर्माण करने के लिए परमदेवों की आराधना, स्तुति आदि करना मानव को अत्यावश्यक है।
समैश्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥
अर्थात् - मूर्ख की संगति से बुद्धि घट जाती है समान व्यक्तियों की संगति से बुद्धि समान और महागुणवान् की संगति से मानव की बुद्धि या विचार महान् हो जाते हैं अत: मानव को महान् गुणी होने के लिए महान् परमात्मा, गुरु आदि गुणवानों की भक्ति तथा संगति की सदैव आवश्यकता होती है।
परन्तु व्यवहार दृष्टि से जड़ कर्म रज से सम्बद्ध होकर कर्मजनित सुख तथा दुख का अनुभव करता है और क्रोध, तृष्णा, हिंसा, मदआदि से दूषित होता है। इन दोषों के प्रभाव से ही मानव अपने गुणों को तथा गुणवान् महापुरुषों को न जानता है और न उन पर विश्वास करता है। अतएव गुणवानों की संगति या उपदेश से, वह दूषित मानव, दया, समता, नम्रता, सत्य संयम आदि अनेक गुणों के विकास का कभी प्रयास भी नहीं करता है । गुणवानों की संगति एवं उपदेश के बिना गुणों का विकास संभव नहीं है । नम्रता के बिना मानव में गुणवान् महात्मा के प्रति भक्ति का स्थान नहीं होता है। घमण्डी पुरुष न गुणवान् का आदर करना चाहता है और न अपने गुणों का विकास ही । उसके समस्त व्यवहार छलपूर्ण और षड्यन्त्रों से भरपूर रहते हैं ।
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अतः गुणवानों की संगति या भक्ति से मानव को श्रद्धापूर्वक, निर्दयता, असत्य, मद, लालच, छल
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