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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विक्रम की प्रथम शताब्दी के आचार्य श्री कुमुदचंद्र ने कल्याण मंदिर स्तोत्र के एक श्लोक में परमात्मा के प्रति भक्तिपूर्ण भाव दर्शाया है -
ध्यानाज्जिनेश भवतो भविन: क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानला दुपलभावमपास्य लोके
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: । तात्पर्य - यह है कि जैसे - धातुशोधक व्यक्ति अग्नि के तीव्रताप से सुवर्ण के मेल को दूर कर उसे शुद्ध बना देता है ।वैसे ही हे परमात्मन् ! आपके परम ध्यान से विश्व के मानव अपने दुखद शरीर को छोड़कर शीघ्र ही परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते हैं। विज्ञवर, इस श्लोक में भक्ति का उद्देश्य स्पष्टतया व्यक्त किया गया है ।भक्ति का इतना श्रेष्ठ लक्ष्य अन्य दर्शनों या साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता है।
आवश्यक कर्म - जैन साहित्य में गृहस्थ और साधु को जीवन शुद्धि या आत्मशुद्धि के लिए छह आवश्यक कर्म कहे गये हैं जिनका कि आचरण करना बहुत जरूरी है अतएव इनका नाम भी आवश्यक कर्म कहा गया है । वे इस प्रकार है -
समताधर वंदन करे नानास्तुति बनाये ।
प्रतिक्रमण स्वाध्याययुत, कायोत्सर्ग लगाये ॥ 1. समताभाव, 2. वंदना, 3. स्तुति, 4. प्रतिक्रमण. 5.ग्रन्थों का अध्ययन करना, 6. कायोत्सर्ग (एक आसन से ध्यान लगाना) इन छह कर्तव्यों में वंदना तथा स्तुति भी आवश्यक कर्म है जो भक्ति के एक रूपान्तर है। वंदना और स्तुति का स्पष्टीकरण निम्न श्लोक में है -
त्रिसंध्यं वंदने युंज्यात् चैत्यपंचगुरुस्तुतिम् ।
प्रियभक्तिं वृहद् भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ॥1॥ अर्थात् - तीनों संध्या संबंधी वंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति तथा अन्य वृहद् भक्ति के अंत में दोषो की विशुद्धि के लिए मानव को प्रियभक्ति (समाधि भक्ति) करना चाहिए। देववंदना में भी छह कृतिकर्म आवश्यक हैं -
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवार मावर्ताः। __ द्वादशचत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोटेष्टम् ॥2॥ (वंदनादि संग्रह पृ. 1) __ अर्थात् 1. वंदनाकर्ता की स्वाधीनता, 2. प्रदक्षिणा, 3. कायोत्सर्ग, 4. निषद्या, 5. चारशिरोनति, 6. द्वादश आवर्त-ये छह कृति कर्म है।
भक्तिमार्ग का अस्तित्व - आवश्यकता या आवश्यक कर्म के अनुसार जैन दर्शन में मानव को परमात्मा, साधु महात्माओं की भक्ति, पूजन अथवा स्तुति करने का दैनिक विधान है, गृहस्थ के छह दैनिक कर्तव्य इस प्रकार हैं -
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