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कृतित्व / हिन्दी
कान्ति से सहित है।
श्लेष उपमालंकार का प्रभाव गंगातटे उद्यानवर्णन -
संदेह - अर्थातरन्यास अलंकार की चमक पान गोष्ठी वर्णन
बहुकल्पपादपैरपि, रम्यं सुमनः समूहतो भुवि रम्यम् । नंदनं वनमिवाति मनोज्ञं पुण्यपुरूषैः बभूव भोग्यम् ॥
यमकालंकार का चमत्कार - काशीगमन का वर्णन -
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जगाम मैरेयभृते त्वमत्र आद्यातुमात्तप्रतिमेऽलिरत्र । वध्वा स वध्वानयने ऽब्जबुद्धिं, स्याल्लोलुपानांतु कुतः प्रबुद्धि : ॥
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
समुदंग: समुदगाद्, मार्गलं मार्गलक्षणम् । नरराट् परराड्वैरी, सत्त्वरं सत्त्वरंजितः ॥
अनुप्रास अलंकार की छटा - हस्तिनापुर राजधानी का वर्णन - वापीतटाकतटिनीतट निष्कुटेसु, हेमांगदप्रभृति बन्धु समाजराजम् । चिक्षेप सोऽथ रमयन् समयंनरेन्द्रः, केन्द्रेरिवृद्धिकनिदानभिदामधीशः ॥ (जयोदय: सर्ग 21 : पद्य 88 )
(जयोदय: सर्ग 14 : पद्य 5 )
इस प्रकार जयोदय महाकाव्य में ग्रन्थप्रणेता ने अलंकारों की कल्पना, रसाभिव्यक्ति, भावव्यंजना, लोकोक्ति, नीति और सुभाषित वचनों का विचित्र प्रयोग किया है। जयोदय, महाकाव्य ग्रन्थ होते हुए भी इसमें प्रशस्त शान्त रस के अंतर्गत अध्यात्म का दिग्दर्शन कराया गया है। क्षत्रिय वीर जयकुमार ने ओं ह्रीं अर्ह नम: इस मंत्र के जाप से आत्मा को विशुद्ध किया था । इसलिए ग्रन्थ कार ने 19वें सर्ग में ओं ह्रीं अहं की सिद्धि करते हुए ऋद्धि धारी मुनीश्वरों की वंदना हेतु 64 ऋद्धि मंत्रों का व्याख्यान किया है । इस कारण श्री पं. भूरामल शास्त्री वाणी भूषण की विशिष्ट ज्ञान प्रतिभा का अनुमान किया जाता है ।
उपसंहार - श्री वाणी भूषण ब्र. पं. भूरा मल जी शास्त्री ने वि.सं. 1983 में जयोदय महाकाव्य का सृजन कर भारतीय संस्कृत साहित्य को समृद्धि शाली बनाया है। सामान्यतया यह ग्रन्थ काव्य एवं साहित्य रूप उभय विषय से सम्पन्न है। विशेष दृष्टि से यह साहित्य ग्रन्थ है क्योंकि इसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर काव्य के लक्षणों का प्रयोग किया गया है। काव्य के भेद प्रभेदों के अंतर्गत यह महाकाव्य है कारण कि इसमें महाकाव्य के लक्षण विद्यमान है इसमें अलंकार रस रीति नीति गुण लोकोक्ति और मंत्रों का सार्थक वर्णन किया गया है। प्रशस्त शान्त रस प्रधान यह ग्रन्थ लोक कल्याणकारी प्रसिद्ध है ।
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(जयोदय: सर्ग 16 : पद्य 48 )
अपारे काव्य संसारे, कविरेव प्रजापतिः । यथा स्मैरोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ॥
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