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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शुभ एवं भावसौन्दर्य से पूर्ण इस पद्य पर विचार किया जाये तो गंभीर अर्थ ज्ञात होता है - जैसे कोई रोगी रोगविनाशार्थ डॉक्टर के पास जाता है, डॉक्टर दवा देता है,दवा सेवन से जब लाभ नहीं तब रोगी पुनः ऊँचे डॉक्टर के पास जाता है। और कहता है कि 7 दिनों में दवा से कोई लाभ नहीं। आप इससे ऊँची दवा दीजिये। डॉक्टर ने ऊँची दवा दे दी। रोगी ने ऊँची दवा के सेवन से अपना रोगनाश किया और स्वस्थ हो गया। उसी प्रकार इस जगत् के प्राणी ने तृषारोग की दवा जल किसी डॉक्टर से ली, जब रोगी ने बहुत जल पिया और प्यास शांत नहीं हुई तो वह ऊँचे डॉक्टर परम गुरु के पास गया और जल सामने रखकर कहा - गुरुदेव ! इस जल से प्यास शांत नहीं हुई, दूसरी कोई ऊँची दवा कहिये , तब गुरुदेव ने समतारूपी जल दिया और उससे वह स्वस्थ हो गया। इसी प्रकार इस पद्य में भी यही भाव दर्शाया गया है।
शम्भू छंद से शोभित यह पद्य विशेषालंकार समाधि गुण वैदर्भी रीति, सिद्ध लक्षण और भारती वृत्ति से अनुप्राणित होकर भक्ति रस की सरिता को प्रवाहित कर रहा है। पूजा नं. 91 की जय माला का 14 वाँ पद्य पृ. 799 का भावसौन्दर्य -
जिन भक्ति गंगा महानदी, सब कर्ममलों को धो देती, मुनिगण का मन पवित्र करके तत्क्षण शिवसुख भी दे देती। सुरनर के लिए कामधेनु, सब इच्छित फल को फलती है,
मेरे भी ज्ञानमती सुख को पूरण में समरथ बनती है ॥ भावसौन्दर्य -
__जिनेन्द्र भक्ति रूपी गंगानदी, द्रव्यकर्म,भावकर्म नोकर्मरूपी मल का प्रक्षालन करती है । आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं आर्यिकाओं के मन को पवित्र कर सहसा मुक्ति सुख को प्रदान करती है, देवों और मानवों के लिए इच्छित श्रेष्ठफल को प्रदान करती है। और ज्ञानमती आर्यिका के क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को क्षायिक सुख एवं ज्ञान को करने में समर्थ है । इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक जिनेन्द्र भक्ति से विश्व की भव्य आत्मा ही परमात्मपद को प्राप्त करती है।
इस पद्य में रूपकालंकार, तद्गुणालंकार के प्रभाव से शांतरस की शीतलता प्रवाहित होती है उदारता गुण, पांचालीरीति सिद्धि लक्षण, भारतीवृत्ति की पुट से शांतरस का फब्बारा धुंआधार चल रहा है । पूजा नं. 87 ग्रह जिनालय पूजा पृ. 761 का 7 वाँ पद्य -
जिन भक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनुकूल बना देती, जिन भक्ति अकेली ही जन को दुर्गति से शीघ्र बचा लेती । जिन भक्ति अकेली ही जन के, तीर्थकर आदि पुण्य पूरे,
जिन भक्ति अकेली ही जन को शिवसुख देकर भवदुख चूरे ॥ शंभुछंद में चिरचित इस पद्य का यह चमत्कार पूर्ण अर्थ द्योतित होता है कि कारण एक मात्र जिन
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