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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
समीक्षा
सर्वतोभद्र विधान का अनुशीलन
श्री पूज्य ज्ञानमती माता जी द्वारा प्रणीत इस विधान का नाम 'सर्वतोभद्र विधान' प्रसिद्ध है। इस विधान का नाम इस कारण सार्थक है कि इसमें तीन लोकों के सम्पूर्ण अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्यालयों का विस्तृत पूजन लिखा गया है। इस विधान के अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि पूज्य माताजी ने स्वकीय श्रुतज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के सम्पूर्ण चैत्यालयों के भावपूर्वक दर्शन कर लिये है अतएव आप लोकत्रय के सम्पूर्ण चैत्यालयों के विस्तृत वर्णन, दर्शन, पूजन एवं लेखन करने में समक्ष हो सकी हैं, यह वृत्त दुर्लभ और स्मरणीय है। शास्त्रों में इस विधान का एक नाम 'चतुर्मुखयज्ञ' भी प्रसिद्ध है इसको महामुकुट नरपतियों द्वारा बड़ी योजना एवं समारोह के साथ किया जाता है।
__इस महाविधान के प्रारंभ में हिन्दी मंगलाचरण,संस्कृतस्वस्तिस्तव, मंगलस्तव (प्राकृत) सामायिकदण्डक, धोस्सामिस्तव और संस्कृत चैत्यभक्ति का पाठ दर्शाया गया है। इस विधान में सम्पूर्ण 101 पूजाएँ, उनमें 1811 अर्ध्य और 190 पूर्णायं इस सर्व सामग्री के द्वारा तीन लोकों के सम्पूर्ण 85697481 अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्चन किया गया है। 797 पृष्ठों में समाप्त हुए इस महाविधान में 37 प्रकार के छंदों में विरचित 4230 सुन्दर पद्य त्रिलोक के चैत्य एवं चैत्यालयों की महत्ता एवं पूज्यता को घोषित कर अंतिम परमात्मपद की प्राप्तिरूप फल को दर्शाते है। इस महा पूजा में सविधि प्रयुक्त महाध्वजाएँ एवं 108 लघुध्वजाएँ अमूल्य सिद्धांतों को, समर्पित 108 स्वस्तिक विश्वकल्याण को घोषित करते है। जिस प्रकार लोकोक्तिरूप में विधाता ने जगत्त्रय की रचना कर तीन लोक में अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। उसी प्रकार विधान की विधात्री ने वृहत् तीन लोक विधान की रचना कर जगत् के विधान (राजनीतिशास्त्र अथवा पूजा विधानशास्त्र) में अपना अधिकार चिरस्थायी कर लिया है यह आश्चर्य है । माताजी ने वी.नि.सं.2513 में यह त्रिलोक विधान समाप्त कर स्वकीय मानव जीवन को उच्च श्रेणी में उज्जीवित किया है।
विधान की विशेषता के कतिपय उद्धरण इस प्रकार हैं - पूजाक्रमांक 1 त्रैलोक्यपूजा के जल अर्पण करने का पद्य -
भर जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने, फिर भी नहीं प्यास बुझी अब तक, इसलिए नीर से पूँजू मैं । त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा कृत्रिम अकृत्रिम अगणित है, अर्हन्त सिद्ध साधु आदिक, इन सब की पूजा शिवप्रद है ॥1॥
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