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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उसके बाद आहारक काययोग होता है। तैजस शरीर के निमित्त में आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द नहीं होता इसलिए तैजसयोग नहीं माना जाता है। परमार्थ से मनोयोग का सम्बंध बारहवें गुणस्थान तक ही होता है परन्तु द्रव्यमन की स्थिरता के लिए मनोवर्गणा के परमाणुओं का आगमन होते रहने से उपचार से मनोयोग तेरहवें गुणस्थान तक होता है। वचनयोग और काययोग का सम्बंध सामान्य रूप से तेरहवें गुणस्थान तक है। विशेष रूप से विचार करने पर सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग तेरहवें तक होते है और असत्य तथा उभय वचन बारहवें तक होते हैं । केवलज्ञान होने के पहले अज्ञान दशा रहने से अज्ञान निमित्तक असत्य वचन की संभावना बारहवें गुणस्थान तक रहती है इसलिए असत्य और उभय का सद्भाव आगम में बारहवें गुणस्थान तक बताया है। ऐसा ही मनोयोग के विषय में समझना चाहिए ।
कार्मणकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और केवलिसमुद्घात की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान (प्रतर ओर लोक पूरण भेद) में होता है अन्य गुणस्थानों में नहीं । औदारिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और कपाट तथा लोकपूरणसमुद्घात के भेद की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान में होता है। औदारिककाययोग प्रारंभ से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में रहता है तथा वैक्रियिककाययोग प्रारंभ के चार गुणस्थानों में होता है । आहारकमिश्र और आहारक काययोग मात्र गुणस्थान में होते हैं ।
औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की, वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर, आहारक शरीर की अन्तर्मुहूर्त, तैजस शरीर की छ्यासठ सागर और कार्मण शरीर की सामान्यतया सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर की है। औदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय देव कुरु और उत्तर कुरु में उत्पन्न होने वाले तीन पल्य की स्थिति से युक्त मनुष्य और तिर्यंच के उपान्त तथा अंतिम समय में होती है। वैक्रियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय बाईस सागर की आयु वाले आरण अच्युत स्वर्ग के उपरितन विमान में रहने वाले देवों के होता है। तैजस शरीर का उत्कृष्ट संचय सातवें नरक में दूसरी बार उत्पन्न होने वाले जीव के होता है। कार्मण शरीर का उत्कृष्ट संचय, अनेक बार नरकों में भ्रमण करके पुन: सातवी पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले नारकी के होता है और आहारक शरीर का उत्कृष्ट संचय उसका उत्थापन करने वाले छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है ।
चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली भगवान् और सिद्ध भगवान् योगों के सम्बंध से सर्वथा रहित है । वेद मार्गणा -
भाववेद और द्रव्यवेद की अपेक्षा वेद के दो भेद हैं। स्त्री वेद, पुंवेद और नपुंसकवेद नामक नोकषाय उदय से आत्मा में जो रमण की अभिलाषा उत्पन्न होती है उसे भाव वेद कहते हैं और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से शरीर के अङ्गों की जो रचना होती है उसे द्रव्य वेद कहते है । भाव वेद और द्रव्य वेद में प्राय: समानता रहती है परन्तु कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यच के कहीं विषमता भी पाई जाती है अर्थात् द्रव्य वेद कुछ हो और भाव वेद कुछ हो । नारकियों के नपुंसक वेद, देवों और भोगभूमिज मनुष्य तिर्यचों के स्त्रीवेद तथा पुंवेद होता है और कर्म भूमिज मनुष्य तथा तिर्यचों के नाना जीवों की अपेक्षा तीनों वेद होते है। संमूर्च्छन जन्म वाले जीवों के नपुंसक वेद ही होता है।
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