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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जो उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का स्वामी हो उसे पुरूष कहते हैं। जो स्वयं अपने आपको तथा अपने चातुर्य से दूसरों की भी दोषों से आच्छादित करे उसे स्त्री कहते हैं तथा जो न स्त्री है और न पुरूष ही है उसे नपुंसक कहते हैं।
आगम में पुरूष वेद की वेदना तृण की आग के समान, स्त्री वेद की वेदना करीष की आग के समान और नपुंसक वेद की वेदना ईंट पकाने के अवा की आग के समान बतलाई है। भाव वेद की अपेक्षा तीनों वेदों का सद्भाव नौवें गुणस्थान के सवेदभाव तक रहता है । द्रव्य वेद की अपेक्षा स्त्री वेद और नपुंसक वेद का सद्भाव पञ्चम गुणस्थान तक तथा 'वेद का सद्भाव चौदहवें गुणस्थान तक रहता है । जो जीव वेद की बाधा से रहित हैं वे आत्मीय सुख का अनुभव करते है। कषाय मार्गणा -
___ कषाय शब्द की निष्पत्ति प्राकृत में कृष और कष इन दो धातुओं से की गई है । कृष का अर्थ जोतना होता है। जो जीव के उस कर्म रूपी खेत को जोते जिसमें कि सुख दु:ख रूपी बहुत प्रकार का अनाज उत्पन्न होता है तथा संसार की जिसकी बड़ी लम्बी सीमा है, उसे कषाय कहते हैं अथवा जो जीव के सम्यक्त्व, एकदेश चारित्र, सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप परिणामों को कषै-घाते. उसे कषाय कहते है।
इस कषाय के शक्ति की अपेक्षा चार, सोलह अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं। शिलाभेद, पृथिवीभेद, धूलिभेद और जलराजि के समान क्रोध चार प्रकार का होता है । शैल, अस्थि, काष्ठ और वेंत के समान मान चार प्रकार का है । वेणुमूल-बांस की जड़, मेंढा का सींग, गोमूत्र और खुरपी केसमान माया के चार भेद हैं। इसी प्रकार कृमिराग, चक्रमल, शरीरमल और हरिद्रारङ्ग के समान लोभ भी चार प्रकार का है। यह चारों प्रकार की कषाय इस जीव को नरक, तिर्यच, मनुष्य ओर देवगति में उत्पन्न कराने वाली है।
___अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन चतुष्क की अपेक्षा कषाय के सोलह भेद होते हैं । इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क जीव के सम्यक्त्व रूप परिणामों को, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क एकदेशचारित्र को, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क सकलचारित्र को और संज्वलन चतुष्क यथाख्यात संयम का घात करता है | अनन्तानुबन्धी दूसरे गुणस्थान तक, अप्रत्याख्यानावरण चतुर्थ-गुणस्थान तक, प्रत्याख्यानावरण पञ्चमगुणस्थान तक और संज्वलन दशम गुणस्थान तक क्रियाशील रहती है। उसके आगे किसी भी कषाय का उदय नहीं रहता है।
नेमिचन्द्राचार्य ने कषायों के स्थानों का वर्णन शक्ति लेश्या और आयु बन्धाबन्ध की अपेक्षा भी किया है। इनमें शक्ति की अपेक्षा, पाषाण भेद, पाषाण, वेणुमूल और चक्रमल को आदि लेकर क्रोधादि कषायों के चार-चार स्थान कहे हैं। लेश्या की अपेक्षा चौदह स्थान इस प्रकार बतलाये हैं -शिला समान क्रोध में केवल कृष्ण लेश्या, भूमिभेद क्रोध में कृष्ण, कृष्ण नील, कृष्णनीलकापोत, कृष्ण नील कापोत पीत, कृष्णनीलकापोतपीतपद्म, और कृष्णादि छहों लेश्याओंवाला, इस प्रकार छह स्थान, धूलिभेद में छह लेश्यावाला
और उसके बाद कृष्ण आदि एक-एक लेष्या को कम करते हुये छह स्थान और जलभेद में एक शुक्ल लेश्या, इस तरह सब मिलाकर १+६+६+१+१४ स्थान होते हैं।
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