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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उठाकर त्याग करना छेदोपस्थापना है अथवा 'छेदे सति उपस्थापना छेदोपस्थापना' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर सावद्य सपापकार्य के प्रति जो भाव होता है उसे दूर कर पुन: सामायिकादि में उपस्थित होना छेदोपस्थापना है। सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, छठवें गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक रहते हैं । पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त होकर जो सावद्य कार्य का सदा परिहार करना है उसे परिहार विशुद्धि संयम कहते हैं। जो जन्म से तीस वर्ष तक सुखी रहकर दीक्षा धारण करता है और तीर्थकर के पादमूल में आठवर्ष तक रहकर प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करता है उस मुनि के तपस्या के प्रभाव से यह संयम प्रकट होता है इस संयम का धारक मुनि तीनों संध्याकालों को छोड़कर दो कोस प्रमाण प्रतिदिन गमन करता है वर्षाकाल में गमन का नियम नहीं है । यह संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में ही होता है। उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी वाले जीव के जब संज्वलन लोभ का सूक्ष्म उदय रह जाता है तब सूक्ष्म साम्पराय संयम प्रकट होता है । यह संयम मात्र दशम गुणस्थान में होता है । चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर जो संयम प्रकट होता है उसे यथाख्यात संयम कहते हैं। आत्मा का जैसा वीतराग स्वभाव कहा गया है वैसा स्वभाव इस संयम में प्रकट होता है इसलिये इसका यथाख्यात नाम सार्थक है। औपशमिक यथाख्यात ग्यारहवेंगुणस्थान में और क्षायिक यथाख्यात बारहवें आदि गुणस्थानों में प्रकट होता है।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय और प्रत्याख्यानावरण कषाय की उदय सम्बन्धी तरतमता से जो एक देश संयम प्रकट होता है उसे संयमासंयम कहते हैं। इसके दर्शन, व्रत आदि ग्यारह भेद होते हैं। यह संयमसंयमी मात्र पञ्चम गुणस्थान में होता है। चारित्रमोह के उदय से जो संयम का अभाव अर्थात् अविरति रूप परिणाम होते है उन्हें असंयम कहते हैं। यह असंयम प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में होता है। दर्शन मार्गणा
क्षायोपशमिक ज्ञान के पूर्व और क्षायिक ज्ञान के साथ केवलियो में जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते है । दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। चक्षु से देखने के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है से चक्षुदर्शन कहते हैं चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। अवधिज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है उसे अवधिदर्शन कहते है और केवलज्ञान के साथ जो सामान्य ग्रहण होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं। वीरसेन स्वामी ने सामान्य का अर्थ आत्मा किया है अत: उनके मत से आत्मावलोकन को दर्शन कहते हैं।
और पदार्थावलोकन को ज्ञान कहते हैं। मन:पर्यय ज्ञान ईहा मतिज्ञान पर्वक होता है अत: मनः पर्यय: स्थापना नहीं की गई। मति और श्रुतज्ञान चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन पूर्वक होते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवेंगुणस्थान तक तथा अवधि दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुण स्थान तक होता है । केवलदर्शन, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्ध अवस्था में विद्यमान रहता है। लेश्या मार्गणा -
जिसके द्वारा जीव अपने आपको पुण्य पाप से लिप्त करे उसे लेश्या कहते हैं यह लेश्या शब्दका निरुक्तार्थ है और कषाय के उदय से अनुरञ्जित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, यह लेश्या शब्द का वाच्यार्थ है। लेश्या के द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो भेद हैं। वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर का रूप रंग
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