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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ संयुक्त करने से स्तोत्र यह शब्द सिद्ध होता है। णू स्तवने - धातु से ति प्रत्यय जोड़ने पर नुति यह शब्द सिद्ध होता है । इन सब शब्दों का सामान्य अर्थ गुणकीर्तन होता है । धर्मशास्त्रों की अपेक्षा विचार करने पर विशेषता यह है - अनेक पूज्य आत्मा के गुणों की प्रशंसा,संक्षेप या विस्तार से करना स्तव तथा स्तवन कहा जाता है और व्यक्ति विशेष पूज्य आत्मा या एक महात्मा के गुणों का संक्षेप या विस्तार से गुणकीर्तन करना स्तुति या स्तोत्र कहा जाता है, नुति भी उसी को कहते हैं । इन सभी स्तवन और स्तोत्रों की जैन दर्शन में न्यूनता नहीं है, सैकड़ों पाये जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, मराठी, कन्नड़, हिन्दी आदि भाषाओं में स्तोत्र बहुसंख्यक हैं उनमें संस्कृत के स्तोत्र प्राचीन भक्तिरस पूर्ण, सरस, आकर्षक और मधुर छन्दों में उपलब्ध होते हैं। खोज करने पर संस्कृत के प्राय: 60-65 स्तोत्र उपलब्ध हुए हैं। सभी स्तोत्र भावपूर्ण सुन्दर छन्दों में निर्मित सुन्दर रचना से परिपूर्ण हैं। उनमें भी पाँच स्तोत्र अधिक प्रसिद्ध, सरस, चमत्कारपूर्ण, अलंकारों से अलंकृत और आकर्षक छन्दों में निर्मित हैं। जैन संस्कृतिक के उपासक अधिक संख्या में इन पंच स्तोत्रों का यथासंभव निरंतर पाठ करते रहे हैं, परन्तु उन उपासकों को अर्थ का बोध न होने से भक्तिरस के साथ वीतराग जिनेन्द्र देव के गुणों का स्मरण कर वास्तविक आत्मानन्द नहीं मिल पाता था, केवल शब्दात्मक, प्राय: अशुद्धपाठ करके ही अपने कर्त्तव्य को पूर्ण कर लेते थे। एवं सार्थ व्यवस्थित मुद्रित पुस्तक उपलब्ध न होने से भी अधिकांश पाठ ही नहीं करते है।
श्रीमान् पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य की विवेकपूर्ण दृष्टि इस महत्वपूर्ण विषय की ओर गई। आपने इस कमी की पूर्ति के लिए 'पञ्चस्तोत्र संग्रह' नाम की पुस्तक का सम्पादन कर अपना कर्त्तव्यपूर्ण किया है। इस पुस्तक में प्रसिद्ध पाँच स्तोत्रों का संग्रह किया गया है : 1. भक्तामर स्तोत्र, 2.कल्याणमंदिर स्तोत्र, 3. एकीभाव स्तोत्र, 4. विषापहार स्तोत्र, 5. जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र । इन स्तोत्रों के प्रत्येक श्लोक का क्रमश:अन्वय अर्थ तथा भावार्थ, रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है, जिसको पढ़कर कोई भी साक्षर व्यक्ति इन स्तोत्रों का तात्पर्य अच्छी तरह समझ सकता है और नित्य तथा शुद्ध पाठ से आत्मा की विशुद्धि प्राप्त कर सकता है।
श्री पं. पन्नालाल जी ने इस पुस्तक की भूमिका में अपने विचार व्यक्त किये हैं जो ध्यान देने योग्य हैं - "ये पाँचों स्तोत्र संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं इसलिए इनके मूलपाठ में भक्तिरस का पूर्ण अनुभव तो उन्हीं को हो सकता है जो संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं। जैसे कि मेघ के शुद्धस्वादिष्ट पानी का अनुभव चातक ही कर सकता है अन्य साधारण प्राणी नहीं।" अपि च -
__"यद्यपि जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र को छोड़कर शेष चार स्तोत्रों का हिन्दी पद्यों में भावानुवाद हो चुका है तथापि जो संस्कृत शब्द का अर्थ जानते हुए पद्य का भावगाम्भीर्य जानना चाहते हैं उन उपासकों को इस स्तोत्रों का अन्वयपूर्वक शब्दार्थ बतलानेवाली टीका की आवश्यकता का अनुभव होता रहता था । भक्तामर स्तोत्र और कल्याण मंदिर स्तोत्र की हिन्दी टीकायें अन्वय अर्थपूर्वक प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु
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