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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तथा यन्त्रों का भी आश्यर्चजनक आविष्कार हुआ है जो प्राचीन शिल्प कला का ही विकास है । इससे राष्ट्र तथा समाज की उन्नति होती है । धार्मिकता के विकास के साधन
__ कर्मयुग में जिस प्रकार राष्ट्रीय लौकिक उन्नति के लिये असि मसि आदि छह कर्म कहे गये हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये भी भ. ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों द्वारा छह साधन- षट्कर्म दर्शाये गये हैं। वे इस प्रकार है
देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । अर्थात्- 1. जीवन्मुक्त आत्मा (अरिहन्त) एवं परमात्मा (सिद्ध) के गुणों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करना । 2.सच्चरित्र आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा विद्वान गुरूओं की संगति में रहकर शिक्षा और सदाचार प्राप्त करना। 3. स्वाध्याय (शिक्षाप्रद ग्रंथों का अध्ययन) करना तथा लेख कविता पुस्तक आदि के रुप में सहित्य का निर्माण करना 4.संयम अर्थात् इन्द्रियों तथा मन पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास करना और समस्त प्राणियों की सुरक्षा का यथा शक्ति प्रयत्न करना। 5. तप-क्रोध, मद. छल, तृष्णा इन चार विकारों को त्यागकर बढ़ती हुई इच्छाओं को रोकने के लिये अनशन एकाशन रस त्याग आदि नियमों की साधना करना। 6.दान या त्याग-द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार आवश्यक खाद्य वस्तु, ज्ञान प्राप्ति के साधन ग्रंथ आदि, रोग विनाश के साधन औषध आदि, प्राणि रक्षा के साधन गृह वस्त्र इत्यादि का त्याग करना, परोपकार करना, सेवा करना, आत्म कल्याण के लिए धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना | धार्मिक तत्त्वों के साथ राष्ट्रीय तत्त्वों का समन्वय
___ राष्ट्र में राज्य का संचालक राजा या शासक होता है। राजा वह है जो धार्मिक एवं राष्ट्रीय भावों का निर्विरोध समीकरण कर मानव समाज एवं प्राणि मात्र को निर्भय, सुखी, शान्त और व्यवस्थित कर दे, अपने राज्य को न्यायपूर्ण राम राज्य बना दे । राजा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है।
“प्रतिपन्नप्रथमाश्रम: परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासितगुरुकुल: सम्यगविद्यायामधीती कौमारवयोलंकुर्वन् क्षत्रपुत्रो भवति ब्रह्मा" नीति वाक्यामृत
अर्थात-ब्रह्मचर्याश्रम प्रविष्ट, ईश्वर भक्त, ब्रह्मचारी, गुरुकुल का उपासक, सकल राजविद्याकुशल, युवराज, क्षत्रिय पुत्र राजा ब्रह्मा के समान गौरवशाली कहा जाता है। यदि शासक की आत्मा में धर्म तत्त्व और राष्ट्रीय तत्त्व की समीकरण रुप भावना है तो प्रजा में भी यही महत्वपूर्ण भावना रहती है जिससे राष्ट्र में और अन्तर्राष्ट्र में शान्ति तथा न्याय का शासन जीवित रहता है। धर्म मूलक शासन ही राम राज्य के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में राष्ट्र के नेताओं को इधर ध्यान देना चाहिए।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव कर्मयुग के प्रथम समन्वयवादी शासक थे। इस विषय में महर्षि समन्त भद्राचार्य का कथन है -
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