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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निश्चय तथा व्यवहार का समंवय -
निश्चय भूतार्थ और व्यवहार अभूतार्थ ये दोनों परस्पर विरोधी होने पर भी स्याद्वादशैली से दोनों का समंवय कार्यकारी सिद्ध होता है । “स्यात्" इस पद का अर्थ संदेह, शक, अनिश्चय और शायद नहीं हैं, अन्यथा संदेह होने से एक वस्तु में अनेक धर्मो की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । अत: “स्यात्" इस पद का अर्थ दृष्टिकोण अपेक्षा तथा विवक्षा है उससे एक वस्तु में अनेक धर्मो की सिद्धी होती है। जैसे एक ही पुरूष पिता की अपेक्षा पुत्र है और पुत्र की अपेक्षा पिता है । इसका प्रमाण यह है -
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यंप्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोर्थ, योगित्वात्तवकेवलिना मपि ॥
(अष्टसहसी पद्य 103) "द्योतकाश्च भवन्ति निपाता:' इत्यत्र चशब्दाद वाचकाश्च इति व्याख्यानात् (सप्तभंगीतरगिणी पृ. 23)
अर्थात् “स्यात्" यह पद वाक्य में मुख्य अर्थ का वाचक है और गौण (अमुख्य)अर्थ का द्योतक है इस प्रकार वह स्यात्पद एक वस्तु में परस्पर दो विरोधी धर्मो को सिद्ध करने वाला होने से अनेकान्त को प्रकाशित करता है। प्रकृत में स्यात्पद कहीं पर निश्चय धर्म का वाचक है और व्यवहार धर्म का द्योतक है तथा कहीं पर व्यवहार का वाचक है और निश्चय धर्म का द्योतक है एक ही समय में वाचक तथा द्योतक दो धर्म सिद्ध होते है।
___ उदारहणार्थ - एक भावपूजनरूप निश्चय धर्म प्रधान होने पर द्रव्यपूजन रूप व्यवहार धर्म का लोप नहीं करता और द्रव्यपूजन रूप व्यवहार प्रधान होने पर पर भावपूजनरूप निश्चय का लोप नहीं करता किन्तु भाव द्रव्य पूजन रूप दोनों ही कर्तव्य एक साथ चलते है। इस विषय में श्री अमृतचंद्र आचार्य का प्रमाण इस प्रकार है
व्यवहार निश्चयौयः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्य: ॥
(पुरूषार्थ. श्लोक8) जो मानव व्यवहार और निश्चय को अच्छी तरह समझकर दोनों पक्ष को स्वीकार करता है एक ही पक्ष का हठ नहीं करता है वही शिष्य तत्त्वोपदेश के लौकिक तथा अलौकिक सभी फल को प्राप्त करता है।
अन्य प्रमाण
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदे सिदापुण जेदु अपरमेट्ठिदाभावे ॥
(समयसार गाथा 14)
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