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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मानव का स्थितिकरण
पुराण और इतिहास ग्रंथ कहते हैं कि इस अवसर्पिणी (हास) काल के अतिप्राचीन प्रारंभिक विभाग की प्रसिद्धि 'भोगयुग' के नाम से थी। इसको इतिहासकारों के शब्दों में पाषाणयुग से भी पूर्व का युग कहा जा सकता है। इस युग में मानव, वस्त्रांग-भोजनांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा विविध जीवनोपयोगी वस्तुओं को प्राप्त कर सुखशान्तिपूर्ण स्वतंत्र जीवन व्यतीत करता था । भोगयुग समाप्त हो जाने पर कल्पवृक्ष भी लुप्त हो गये थे। तत्पश्चात् कर्मयुग के प्रारम्भकाल में मानवों का जीवन असहाय, अव्यवस्थित तथा संकटमय हो गया | उस विचित्र परिस्थिति में क्रमश: अवतरित प्रतिश्रुति आदि चौदह मनु (कुलकर) महापुरुषों ने आवश्यक धार्मिक तथा लौकिक कर्तव्यों का निर्देश कर मानवों के जीवन को व्यवस्थित, शान्त
और निर्वाहयोग्य बनाया। उस समय जब मानवों को सबसे प्रथम-भूख-प्यास के रोगों ने सताया तब किंकर्त्तव्यविमूढ मानव दुखित होते हुए श्रीऋषभनाथ के निकट गये। उन्होंने स्वयं उत्पन्न इक्षु (गन्ना) के रसपान द्वारा सर्वप्रथम भूख-प्यास को शान्त करने का समाधान किया । पश्चात् सेब, अनार आदि फलों का अन्वेषण कर शाकाहार द्वारा क्षुधा शान्त करने का आदेश दिया । प्रेमपूर्वक व्यवहार, रहन-सहन भूषा और भाषा का प्रयोग दर्शाया । यह स्थितिकरण आज तक परम्परया चला आ रहा है। वंशों की स्थापना
मानव जीवन व्यवस्थित और शान्त हो जाने के पश्चात् विवाह की प्रथा का श्रीगणेश हुआ। जब मानव की सन्तान बढ़ने लगी तब श्रीऋषभदेव ने व्यक्तियों के संगठन को कुटुम्ब या वंश के नाम से स्थापित किया। सर्वप्रथम श्रीऋषभदेव के वंश की प्रसिद्धि ‘इक्ष्वाकुवंश' के नाम से हुई थी, क्योंकि श्रीऋषभनाथ ने सर्वप्रथम जनता के कष्टों को दूर करने के लिये इक्षु-वनस्पति का अन्वेषण किया था, अत: श्रीऋषभदेव का स्मरण इक्ष्वाकु नाम से किया गया और उनका वंश 'इक्ष्वाकुवंश' नाम से प्रसिद्ध हुआ। धर्मग्रंथों में प्रमाण है कि “इक्षु इति शब्दं अकतीति अथवा इक्षुमाकरोतीति "(अहिंसावाणी ऋषभ वि0 पृ0 ३०) इस वंश का दूसरा नाम सूर्यवंश भी प्रसिद्ध हुआ । पश्चात् श्रीऋषभदेव ने कुरुवंश की स्थापना कर राजा सोमप्रभ को उसका नायक बनाया। हरिवंश का नायक राजा हरि को, नाथवंश का नायक राजा अकम्पन को , और उग्रवंश का नायक राजा काश्यप को घोषित किया । इन प्रधानवंशों की शाखा-प्रशाखारूप अन्य वंश भी समयानुसार स्थापित होते रहे हैं। उनकी परम्परा आज भी प्रचलित है। सर्वोदय समाज की स्थापना
वंशो की वृद्धि हो जाने से मानवों की समीचीन व्यवस्था सम्पन्न करने के लिये समाज का निर्माण होता है। सर्वप्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ ने वंशों का संगठन कर सर्वोदय समाज की स्थापना की। समाज के प्रत्येक सदस्य को मैत्रीभाव, सहयोग और समान व्यवहार करने का उपदेश दिया। मानवों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से तत्काल उपस्थित अनेक जटिल समस्याओं का समाधान किया गया । जैसे भोजननिर्माणविधि, वनस्पति का उपयोग, पशुपालन, बर्तननिर्माण, गृहनिर्माण, जलाशयनिर्माण आदि लौकिक
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