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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उपादान और निमित्त कारण द्वय की आवश्यकता
यह विश्व षद्रव्यों का संयोगी रूप है । द्रव्य वह है जिसमें उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य है अथवा जिसमें गुण और क्रमवर्ती पर्यायों की सत्ता है। प्रत्येक द्रव्य उत्पत्तिक्रिया, लय क्रिया और नित्यता से व्याप्त है अतएव वह अनंत पर्यायात्मक द्रव्य है
उक्तं च ............... "सद् द्रव्य लक्षणम्" "उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्"
(मोक्षशास्त्र अ. -5) जब कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय सिद्ध है तो उसमें पर्यायात्मक कार्य कारण भाव स्वयमेव उपस्थित हो जाता है। यदि कोई वस्तु विशेष कार्यरूप है या पर्याय रूप है तो उसका कारण अवश्य ही होना चाहिए । क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है। कारण अपेक्षित कार्य होता है अतएव लोक में कार्यकारण संबंध की सत्ता सिद्ध है और प्रति समय उसका उपयोग भी किया जाता है। इसलिए कार्य कारण भाव का विचार हो जाना आवश्यक है ।
लोक में कार्य के प्रति किसी को विवाद नहीं किन्तु विवाद कारण के प्रति है । वह कारण मूलत: दो प्रकार का है 1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण। द्रव्य की प्रत्येक पर्याय में दोनों कारण अपेक्षित हैं। तथाहिविशेषपर्याय का उपादान कारण वह द्रव्य स्वयं होता है जो कि उस पर्याय (कार्य) रूप परिणत होता है, उस द्रव्य में निमित्तवशात्, उस कार्य रूप व्यक्त में होने की शक्ति है इसी को उपादान कारण या अंतरंग कारण कहते है । और द्रव्य के उस विशेष कार्यरूप परिणत होने में जो कारण मात्र है उसे बाह्य कारण या निमित्तकारण कहते है । जैसे घटकार्य के प्रति मिट्टी उपादानकारण और दण्ड - चक्र कुम्भकारादि बाह्य निमित्तकारण हैं। घट के ये कारणद्वय प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है।
श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिक में श्री मदकलंक देव ने कहा है - "कार्य स्थाने कोपकरण साध्यत्वात् तत्सिद्धे: - इह लोके कार्यमनेकोपक रणसाध्यं दृष्टं - यथा मृत्पिण्डो घटकार्य परिणाम प्राप्ति प्रति गृहीताभ्यंतर सामर्थ्य: बाह्यकुलाल दण्ड चक्र सूत्रोदक कालाकाशा धनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति । नेक एव मृतिण्ड: कुलालादिबाह्य -साधन सन्निधानेन विना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ: । तथा पतत्त्रिप्रभृतिद्रव्यं गति स्थितिपरिणाम प्राप्तिं - प्रत्यभिमुखं नान्तरेण बाह्यनेककारण सन्निधिं गति स्थितिं वा प्राप्तुमलमिति तदुपग्रह कारण धर्मा धर्मास्ति काय सिद्धिः इति" उक्त प्रमाण से कारणद्वय की सिद्धि होती है।
(त.रा.वा.अ. 5 स. 17 पृ. 214)
किञ्च -
उपादानकारण की सत्ता पृथक् सिद्ध है और निमित्तकारण की सत्ता भी पृथक् सिद्ध है। दोनों में स्वतंत्रसिद्ध पृथक् - पृथक् स्वशक्ति है, दोनों के पृथक् गुण हैं, इसलिए निमित्तकारण उपादान रूप नहीं होता
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