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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रुतपंचमी महापर्व - एक सात्त्विक चिन्तन
लोक में रत्न दो प्रकार के होते हैं । (1) आध्यात्मिक रत्न, (2) भौतिक रत्न । भौतिक रत्न वसुन्धरा में समुद्रों में, खदानों में, जौहरी बाजारों में, स्वर्गो में, मंदिरों में ,देवों के भवनों में और नृप आदि श्रीमानों के भवनों में उपलब्ध होते हैं। परन्तु आध्यात्मिक रत्न आत्मा में ही चमकते हैं, आत्मा को छोड़कर अन्य पुद्गल द्रव्य, भौतिक पदार्थ, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और काल द्रव्य तथा तीनलोक, आलोक में तीन कालों में कहीं भी विद्यमान नहीं हैं । द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में कहा गया है।
रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणंमुयतु अण्णदवियम्हि । तह्मातत्तियमइयो, होदिहु मोक्खस्सकारणं आदा ॥
(नेमिचन्द्रमुनिराज : द्रव्य संग्रह गाथा 40) सारांश - सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित्र रूप रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में, लोक, अलोक तीन लोक और तीन कालों में कहीं भी विद्यमान नहीं हैं। इसलिये रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है अथवा मोक्ष स्वरूप है (1) समीचीन तत्व श्रद्धान, (2) सम्यक् तत्वज्ञान, (3) सम्यक् चरित्र ये तीन अक्षय श्रेष्ठ गुण प्रत्येक आत्मा में सर्वदा एक साथ मोक्षमार्ग में और मोक्ष में विशिष्ट सत्ता से सुरक्षित हैं । प्रत्येक मानव को इनके पूर्व विकास के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । यहां सम्यक्ज्ञान विवक्षित है इसलिये उनका वर्णन किया जाता है।
__संशय, विपर्यय और विमोह दोषों से रहित, सम्यग्दर्शन के साथ उदित होने वाले या उदित हुए तत्वज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहते हैं । अथवा आचार्य वट्टकेर स्वामी ने मूलाचार श्लोक 100 में घोषित किया है।
"जेणतच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरूज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झज्ज, तं गाणं जिणसासणे ।। 70॥" अर्थात- जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके, जिससे मनोबल विषय कषायों से विरक्त हो जाये, जिससे आत्मा विशुद्ध हो जाय उसको जिनशासन में सम्यक्ज्ञान कहा गया है।
सम्यक्ज्ञान के पंचभेद होते हैं (1) मतिज्ञान, (2) श्रतु ज्ञान. (3) अवधिज्ञान, (4) मन: पर्यय ज्ञान, (5)केवलज्ञान । इनमें से श्रुतज्ञान का कथन विवक्षित है जो ज्ञातव्य है ।
श्रुतज्ञान दो प्रकार का है (1) भाव श्रुत अर्थात् ज्ञानात्मक (2) द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मक शेषचार ज्ञान वस्तुस्वरूप के ज्ञापक है, परन्तु शब्दरूप से कथन करने वाले नहीं हैं। यह श्रुतज्ञान की एक विशेषता है। इसी विषय को सर्वार्थ सिद्धि में स्पष्ट किया है -
"तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुत वजम् । श्रुतं पुन: स्वार्थ भवति परार्थ च। ज्ञानात्मकं स्वार्थ , वचनात्मकं परार्थ तद्विकल्पानया:।"
(आ. पूज्यपादः सर्वार्थ सिद्धि : सूत्र 6. पृ. 18) -280
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