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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ व्यवहार चारित्र की युगपत् आवश्यकता है । क्योंकि निमित्त का प्रभाव उपादान पर व्यक्त होता है।
इस प्रकार संस्कृत साहित्य में निमित्त और उपादान की सिद्धि के लिए अनेकों प्रमाण ग्रन्थकारों ने कहे हैं जिनका मनन कर अपने विचार स्थिर करना चाहिए। _____ जब हिन्दी जैन साहित्य की ओर दृष्टिपात किया जाये तो उसमें भी अनेकों प्रमाण प्राप्त होते हैं, कुछ प्रमाण यहाँ भी देखिये । श्री कविवर पं. दौलतराम जी ने कहा है - “सम्यग्दर्शन ज्ञानचरण शिवमग सो द्विविध विचारो । जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो ॥" (छहढाला तृतीयढाल)
यहाँ मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है एक सत्यार्थरूप निश्चयमार्ग जो उपादान रूप है और दूसरा व्यवहार अर्थात् निमित्तरूप जो निश्चय का कारण है। इस प्रकार निश्चय (उपादान) और व्यवहार (निमित्त) रूप मोक्षमार्ग के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्य प्रमाण - श्री कविवर बनारसीदास जी ने कहा है -
"ज्ञाननैन किरियाचरन, दोऊ शिवमगधार । उपादान निहचै जहाँ, है निमित्त व्योहार ॥1॥ उपादान निजगुण जहाँ, तहँ निमित्त पर होय ॥ भेद ज्ञान परवान विधि, विरला बूझे कोय ।।2।।"
(बनारसी विलास पृ. 230) उक्त छन्दों में भी उपादान और निमित्त की आवश्यकता कार्य के प्रति व्यक्त की गई है। उसी को निश्चय और व्यवहार कहते हैं। दोनों से ही इष्ट की सिद्धि मानी गई है। इस विषय में और भी अनेक प्रमाण अन्वेषित किये जा सकते हैं, पर विस्तार के भय से यहाँ अधिक नहीं दिये गये हैं। निमित्तैकान्त में दोष -
प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में निमित्त और उपादान दोनों की आवश्यकता रहती है यह सप्रमाण कहा जा चुका है।
यदि कोई व्यक्ति यह विषय प्रकट करे कि कार्योत्पादन में निमित्त ही बड़ा बलवान तथा कार्यकरण में समर्थ है वह ही सर्वशक्तिमान है। प्रत्येक व्यक्ति उसकी ही अपेक्षा रखते हैं,उपादान की नहीं। उपादान में कार्य के प्रति सामर्थ्य नहीं है । इत्यादि । उसका यह कथन दोषपूर्ण है। यदि निमित्तैकान्त माना जाये जो वस्तु या वस्तुतत्त्व का लोप हो जायेगा, आध्यात्मिकता का लोप होकर क्रिया काण्डमात्र ही प्रधान हो जायेगा। विश्व के प्राणी अपने लक्ष्य की सिद्धि न कर सकेंगे। श्री अमृतचंद्राचार्य जी ने इस विषय में कहा है -
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