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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - उपदेशक आचार्य अज्ञानी मानव को समझाने के लिए व्यवहरनय का उपदेश करते हैं । जो मानव केवल व्यवहारनय को ही साध्य मानकर निश्चयनय के विषय को साध्य (लक्ष्य) नहीं मानता है, उस मिथ्याधारणा वाले के लिए आचार्य का उपदेश नहीं है । जैसे महल की छतपर जाकर जिस व्यक्ति को धूप सेवन करने की आवश्यकता है उसको सीढ़ी का आश्रय अवश्य लेना चाहिए । और सीढ़ियां पार कर छत पर जाकर बैठ जाना चाहिए । यदि कोई मानव छत पर प्राप्त होने का लक्ष्य न रखकर केवल जीने पर जाकर बैठ जाये तो उसके लिए जीने पर जाने की आज्ञा नहीं हैं। इसी प्रकार जिसको निश्चयनय विषय रूप छत को प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं है उसको व्यवहार रूप सीढ़ी पर चढ़ने का अधिकार नहीं है। इसी विषय का प्रमाण है -
माणवक एव सिंहो, यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा, निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥
(पुरूषार्थ श्लोक 7) जैसे सिंह को कभी भी नहीं जानने वाले पुरूष की दृष्टि में वन विलाव ही सिंहरूप ज्ञात होता है, वैसे ही निश्चयनय को कभी भी नहीं जानने वाले पुरूष की दृष्टि में व्यवहारनय ही, निश्चयनय रूप ज्ञात होता है । इस एकांगी विपरीत ज्ञान से वस्तुतत्त्व का निर्णय तथा लौकिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता और न उसे लोक में सफलता प्राप्त हो सकती है। इसलिए प्रत्येक मानव को निश्चय तथा व्यवहार दोनों नयों का ज्ञान तथा उसका प्रयोग प्रत्येक विषय में प्राप्त करना चाहिए।
___ आध्यात्मयोगी श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी निश्चय के साथ ही व्यवहारनय की उपयोगिता को आवश्यक दर्शाया है इसका प्रमाण देखिये -
जहणवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।
(समयसार गाथा 8) तात्पर्य यह है कि जैसे म्लेच्छजनों को, म्लेचछ भाषा के बिना वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने को कोई, भी पुरूष समर्थ नहीं हो सकता. उसी प्रकार व्यवहारनय के बिना परमार्थ (निश्चय) का ज्ञान कराने के लिए कोई अन्य साधन समर्थ नहीं है। इसलिए आचार्यो ने व्यवहारनय के प्रयोग को आवश्यक दर्शाया है। कविवर पं. दौलतराम जी ने भी व्यवहारनय का समर्थन किया है -
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो । जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो॥
(छहदाला तृ. ढाल)
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