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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सारांश - जो शुद्धनय की अपेक्षा पूर्ण सम्यक् श्रृद्धा ज्ञान चारित्रवान हो गये हैं, उन शुद्ध परम आत्माओं को शुद्ध निश्चयनय का विषय आचरण करने योग्य है कि शुद्ध नित्य एक अखण्ड ज्ञानस्वभाव आत्मा में रमण करना और जो आत्माऐं श्रृद्धा ज्ञान चारित्र की पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई है, परन्तु रत्नत्रय की पूर्णता करने के पुरूषार्थ में लीन हैं, साधकदशा में उन आत्माओं की व्यवहारनय द्वारा उपदेश करना चाहिए। इसी गाथा के कलश नं. 4-5-6 में भी यही विषय दर्शाया गया है कि श्रृद्धा ज्ञान चारित्र की पूर्णाता को प्राप्त
आत्माएं शुद्ध निश्चय का आलम्बन करें और रत्नत्रय साधना में मग्न आत्माएँ निश्चयनय का लक्ष्य रखते हुए व्यवहार का आलम्बन करें।
सारांश - आत्महित के लिए दोनों नयों का आश्रय लेना ही उपयोगी है। निश्चय एवं व्यवहार के समंवय में वैज्ञानिक उदाहरण -
पक्षाम्यां पतग: सगुड्डनपरो विद्युच्च तारद्वयात् गच्छेच्चक्रयुगेन साधु शकटं स्त्रीपुंसमुत्था प्रजा । ज्ञानं पंगु तथान्धलाचकरणि: योग्यानयो: संगति -
रेकं यो विरहय्यवष्टि सुगतिं सो ज्ञानिनामग्रणी: ।। सारांश - जिस प्रकार पक्षी दो पंखो से उड़ता है, जैसे दो तारों से बिजली का प्रकाश उत्पन्न होता है, जैसे दो पत्थरों के संघर्ष से अग्नि पैदा होती है, जैसे दो चक्रों के सहयोग से गाड़ी अच्छी तरह चलती है, जैसी स्त्री पुरूष के संयोग से संतान उत्पन्न होती है, जैसे क्रिया के बिना ज्ञान लंगड़ा (व्यर्थ) है और ज्ञान के बिना क्रिया अन्धी है तथा ज्ञान एवं क्रिया दोनों की संगति कार्यकारी है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय धर्म लंगड़ा है और निश्चय धर्म के बिना व्यवहार धर्म अन्धा है,तथा दोनों का सहयोग कल्याणकारी है। जो व्यक्ति उक्त दो - दो पदार्थो में से एक को छोड़कर एक को उपयोगी कहता है हठग्राही वह अज्ञानियों का मुखिया है।
जगत् के पदार्थो का संयोग वियोग परिवर्तन एवं मानवों का व्यवहार नय की पद्धति से होता है अन्यथा लोकव्यवहार की समीचीन व्यवस्था नहीं हो सकती । नय तथा निक्षेप के द्वारा लोकव्यवहार की स्थिति को देखकर ही वैज्ञानिकों ने जगत् को "दुनिया" शब्द से कहा है, जिसका शुद्ध शब्द द्विनय अर्थात् दो नय वाला होता है। सारांश यह है कि लोक का व्यवहार, निश्चयनय तथा व्यवहारनय के द्वारा ही होता है।
वैज्ञानिक क्षेत्र में भी नयचक्र का प्रचुर महत्व है। नयवाद और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा वश द्रव्यों की शक्ति की परीक्षा तथा आविष्कार नयों की अपेक्षा होते है। पदार्थो की अनंत शक्ति का कथन तथा संयोग वियोग का कथन नयों की अपेक्षा से होता है किसी वस्तु के आविष्कार में किसी द्रव्य के अंश अधिक होते है और किसी द्रव्य के अंश पूर्वद्रव्य की अपेक्षा कम होते है, यह अपेक्षा ही नयबाद है। जर्मन देश के विज्ञान योगी सर अलवर्ट आइन्स्टाइन महोदय ने सन् 1905 में अपेक्षाबाद का आविष्कार कर, मानव जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान किया है, इस सिद्धांत के अपेक्षाबाद से नयबाद का समर्थन होता है। (धर्म युग 22 अप्रैल 1056)
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